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अष्टसहस्री
[ स० प० कारिका ५५ जीव इति शब्दस्य च, जीव इति बुद्धेश्चेति । तत्रार्थपदार्थक एव जीवशब्द: सबाह्यार्थः सिद्धो, न बुद्धिशब्दपदार्थकः । ततोनेन' हेतोर्व्यभिचारः संज्ञात्वस्य' सामान्येन हेतुवचनात्' इति, तेपि न सम्यगुक्तयः, सर्वत्र बुद्धिशब्दार्थसंज्ञानां तिसृणामपि स्वव्यतिरिक्तबुद्ध्यादिपदार्थवाचकत्वात् । यस्माद्धि शब्दादुच्चारितादव्यभिचारेण यत्र बोधः प्रजायते स एव तस्यार्थः स्यात्, अन्यथा शब्दव्यवहारविलोपात्" । यथा च जीवशब्दार्थपदार्थकाज्जीवो न हन्तव्य इत्यत्र जीवार्थस्य प्रतिबिम्बको बोधः प्रादुर्भवति तथा बुद्धिपदार्थकाज्जीव' इति बुद्ध्यत15 इत्यादेबुंध्यर्थस्य प्रतिबिम्बको, जीव इत्याहेति शब्द
संज्ञा है । इन तीनों को जीव संज्ञा हो जाने पर अर्थ पदार्थ को कहने वाला जीव शब्द ही बाह्यार्थ सहित सिद्ध हो जाता है किन्तु बुद्धि पदार्थक और शब्द पदार्थक, जीव शब्द बाह्यार्थ सहित नहीं है । अतः इस कथन से आपका संज्ञात्वात् हेतु व्यभिचरित हो जाता है क्योंकि आपने "संज्ञात्व" को सामान्य रूप से ही हेतु माना है।
जैन - ऐसा कहने वाले आप मीमांसक विचारशीलन नहीं हैं क्योंकि सर्वत्र बुद्धि, शब्द एवं अर्थ तीनों भी नाम अपने से भिन्न बुद्धि, शब्द एवं अर्थ रूप पदार्थ के वाचक हैं। देखि ये ! उच्चारित किये गये जिस शब्द से अव्यभिचार रूप से जहां पर ज्ञान उत्पन्न हो जाता है वहीं ज्ञान उसका अर्थ कहलाता है अन्यथा-ऐसा नहीं मानोगे तब तो शब्द व्यवहार का ही लोप हो जावेगा। जिस प्रकार से अर्थ पदार्थवान जीव शब्द से "जीवो न हंतव्यः" जीव को नहीं मारना चाहिये इस वाक्य में जीव अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार से बुद्धि पदार्थ वाले जीव शब्द से "जीव इति बद्भयते" जीव इस प्रकार से जाना जाता है इत्यादि बद्धि स्वरूप वाले जीव शब्द से जीव के ज्ञान रूप अर्थ का प्रतिबिम्बक ज्ञान होता है एवं “जीव इत्याह' इस शब्द पदार्थ वाले जीव शब्द से जीव शब्द का प्रतिबिम्बक ज्ञान प्रकट होता है। इस प्रकार से तीनों प्रकार का ज्ञान प्रकट जाता है । अतएव तीनों ही संज्ञाओं के तीन प्रकार के अर्थ जाने जाते हैं क्योंकि उन तीन प्रकार के शब्दों से प्रकट होने वाले ज्ञान तीन प्रकार के ही होते हैं।
1 संज्ञात्वस्य हेतोः । ब्या० प्र०। 2 अभावरूपो यतः । व्या० प्र० । 3 बुद्ध्यादिश्लोकेन प्रकृतेन । ब्या० प्र० । 4 संज्ञात्वं विद्यते न तु स बाह्यार्थत्वम्। ब्या०प्र०। 5 बुद्धयाद्ययंत्रयेपि । ब्या०प्र०। 6 तेषां वाचिकानाम् । घा० प्र०। 7 स्याद्वाद्याह येपि सौगतार्थपदार्थात् जीवसंज्ञाया: स बाह्यार्थत्वसाधनेन बुद्धिशब्दाभ्यां जीवसंज्ञायाः
ह्यर्थत्वनिराकरणोनेन कृत्वा जीवशब्द: स बाह्यार्थो भवति संज्ञात्वादिति स्याद्वाद्यभ्युपगतस्य हेतोयभिचार: स्यात् । एवं वदन्ति । तेपि सौगता न सम्यग्वचना भवन्ति । कस्माद्बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तिस्त्रोपि स्वकीयशब्दाद्भिन्नानां बुद्धयाद्यर्थानां वाचिका भवन्ति यतः । दि० प्र० । 8 अर्थे । ब्या० प्र० । 9 बोधः । ब्या० प्र०। 10 यत: । ब्या० प्र० । 11 पूर्वस्माद्वपरीत्येन लोके शब्दव्यवहारो न स्यात् । दि० प्र०। 12 ग्राहकः । ब्या० प्र०। 13 बोधः प्रादुर्भवति स एव तस्यार्थ: स्यादिति संबन्धः कार्यः । दि० प्र० । 14 जीवशब्दात् । ब्या० प्र०। 15 जानाति । ब्या० प्र०। 16 असो किमाह इत्युक्त आह । दि० प्र०।
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