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जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि 1 तृतीय भाग
[ ४२५ प्तिमात्र केन सहोपलम्भनियमादिनानुमानेन स्वार्थेन साधितं स्यात्, परार्थेन वा वचनात्मना' परं प्रति, किं वा स्वसंविदद्वैतं स्वतः प्रत्यक्षत एव साधितं स्यात् ? तत्साधनस्य' स्वप्नवन्निविषयत्वात् । किं वा बहिरर्थजातं केन, जडस्य प्रतिभासायोगात् इत्यादिना स्वार्थेन परार्थेन वा दूषणेन दूषितं स्यात् ? इति संतानान्तरमपि न केनचित्साधनेन साधितं स्यात् । तदनभ्युपगमे न केनचिद्रूषणेन दूषितं स्यात्, तथा स्वसंतानक्षणक्षयादिकं च न केनचित् साधितं स्यात् । तदनभ्युपगमेपि न केनचिदूषितम । इति न क्वचिद्व्यवतिष्ठते । 'तैमोरिकद्वयद्विचन्द्रदर्शनवद्भ्रान्तः सर्वो व्यवहार इत्यत्रापि तत्त्वज्ञानं शरणं, तत एव सर्वविभ्रमव्यवस्थितेः । इति व्याहतमेतत् तत्त्वज्ञानात् सर्वस्य भ्रान्तत्वसाधनम्, अन्यथा बहिरर्थवद
एवं प्रत्यक्ष से किसी को क्या सिद्ध हो सकेगा ? अर्थात् नहीं हो सकेगा क्योंकि उस विज्ञान मात्र को सिद्ध करने वाला हेतु तो स्वप्न के समान निर्विषयक ही है।
अथवा बाह्य पदार्थ का समूह भी किस वादी के द्वारा या किस हेतु के द्वारा सिद्ध हो सकेगा क्योंकि स्वयं जड़ पदार्थ तो प्रतिभासित होते नहीं हैं इत्यादि स्वार्थानुमान या परार्थानुमान रूप दूषण से किसको दूषित किया जावेगा ? अर्थात् बाह्यार्थ वचनादि के अभाव में किसी को दूषण भी नहीं दिया जा सकेगा।
इसी प्रकार संतानान्तर भी किसी हेतु से सिद्ध नहीं हो सकेगा और उसके स्वीकार न करने पर किसी दूषण से दूषित भी नहीं हो सकेगा। उसी प्रकार से स्वसंतान का क्षणक्षय एवं वेद्याद्याकार शून्यत्व भी किसी साधन से सिद्ध नहीं हो सकता है एवं उसको स्वीकार न करने पर भी किसी हेतु से वह दूषित भी नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार संवेदनाद्वैत एवं बाह्य पदार्थादिकों में कहीं पर भी “साधन दूषण प्रयोगात्" हेतु रह नहीं सकता।
सौगत-तैमरिक द्वय के द्विचन्द्रदर्शन के समान सभी व्यवहार भ्रांत ही हैं।
जैन - इस कथन में भी आपको तत्त्व ज्ञान ही शरण है क्योंकि तत्त्वज्ञान से ही सभी को विभ्रम रूप व्यवस्थापित किया जाता है अर्थात् सभो को भ्रांत सिद्ध करना भी जो आपको इष्ट है
1 अनुमानेन । ब्या० प्र० । 2 भाष्योक्तस्य कि केनेत्यस्य तात्सर्यवचनम् । ब्या० प्र० । 3 विज्ञप्तिमात्रसंविदद्वैतयोः । ब्या० प्र०। 4 कुत इत्यादिभाष्यांशं भावयन्नाह । ब्या० प्र० । 5 आह सौगतः यथा तिमिररोगापहतचक्षुषः पुरुषस्य द्विचन्द्रस्य दर्शनं भ्रान्तं तथा पक्षसाध्यसाधनस्वसन्तानपरसन्तानादिकः सर्वो व्यवहारः भ्रान्त इति । स्याद्वाद्याह । अत्र सर्वव्यवहारस्य भ्रान्तत्वव्यवस्थापनेन तव सौगतस्य वस्तुपरिज्ञानं शरणं कर्तव्यम् =पर आह ततस्तत्त्वज्ञानादेव सर्वस्य व्यवहारस्य विभ्रमव्यवस्थितिघंटते इत्यस्मदभिप्रायः । स्याद्वाद्याह । तत्त्वज्ञानात्सर्वं भ्रान्तं साधयामीति तव वचन विरुद्धम् । दि० प्र० । 6 सत्य । दि० प्र० ।
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