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तृतीय भाग
जीव की अस्तित्त्व की सिद्धि ]
[ ४१७ स्वार्थविशेषरहितत्वे भ्रान्तिप्रतिपत्त्यनुषङ्गाच्च न तदसिद्धं, यतो निदर्शनं साधनधर्मविकलं स्यात् । एतेन' खरविषाणादिशब्दानामपि स्वार्थरहितत्वमपास्तं, विशिष्टप्रतिपत्तिहेतुत्वाविशेषादन्यथा भावशब्दत्वप्रसङ्गात् । ततो न तैरपि व्यभिचारः। किञ्च,
"बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्यों बुद्ध्यादिवाचिकाः ।
तुल्या बुद्ध्यादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिबिम्बकाः ॥५॥ [ मीमांसकः 'संज्ञात्वात् हेतुं व्यभिचरति, किन्तु जैनाचार्या इमं हेतुं निर्दोष साधयति । ] येप्याहुः 'अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामान इति-जीवार्थस्य जीव इति संज्ञा,
शब्द भी भाववाची शब्द हो जावेंगे, किन्तु ऐसा है नहीं इसलिये इन अभाव शब्दों से भी “संज्ञात्वात् हेतु व्यभिचरित नहीं है । अर्थात् भावशब्द अपने भाव स्वरूप अर्थ को कहने वाले हैं, तथैव मायादि प्रांत शब्द एवं खरविषाणादि अभाव शब्द अपने-अपने भ्रांत स्वरूप एवं अभाव स्वरूप अर्थ को कहने वाले हैं। उत्थानिका- दूसरी बात यह है कि
बुद्धी, शब्द, अर्थ ये तीनों, संज्ञा नाम कहे जाते । निज से पृथक् बुद्धि अरु शब्द, अर्थ वस्तु को ये कहते ॥ अत: तुल्य है तथा नाम त्रय के प्रतिबिम्बक भी तीनों।
बुद्धि शब्द अरु अर्थ ज्ञान ये, बाह्य वस्तु व्यंजक तीनों ॥८५।। कारिकार्थ-ज्ञान, शब्द एवं अर्थ इन तीनों की संज्ञायें बुद्धि आदि पदार्थ को कहने वाली हैं। अतः वे तुल्य हैं तथा बुद्धि, शब्द और अर्थ रूप ज्ञान हैं वे भी तीनों बुद्धि आदि विषय के प्रतिबिम्बक हैं ।।८५॥ [मीमांसक 'संज्ञात्वात्' हेतु को व्यभिचारी सिद्ध करना चाहता है किन्तु जैनाचार्य उसे
निर्दोष सिद्ध कर रहे हैं ।] मीमांसक-अर्थ, शब्द और ज्ञान तुल्य नाम वाले हैं। इसलिये जीव अर्थ की "जीव" पह संज्ञा है। 'जीव' इस शब्द की भी जीव यह संज्ञा है तथैव 'जीव' इस बुद्धि की भी 'जीव' यही
1 विशिष्ट प्रतिपत्तिहेतुत्वाभावेऽभावलक्षणस्वार्थरहितत्वं यदि । ब्या० प्र०। 2 भाववाचकशब्दः । दि०प्र० । 3 अपास्तं यतः । दि० प्र०। 4 प्रकारान्तरेणाहैतत् । दि० प्र०। 5 बुद्धिर्घटविषयज्ञानं शब्दश्च घट इत्यभिधानमर्थश्च पृथुबुध्नोदराकारोत्रयस्तु रूप एतेषां प्रत्येक शब्दाः । ब्या० प्र० । 6 वाचका संज्ञाशब्दाः । ब्या० प्र० । 7 स्युःकुतः । (ब्या० प्र०) 8 बोधा सन्तः । सत्यः । (ब्या० प्र०) 9 ग्राहकाः । दि० प्र० ।
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