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जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ ४१५
काकारविवर्तः', प्रत्यात्म वेदनीयः प्रतिशरीरं भेदात्मको 'ऽप्रत्याख्यानाहः प्रतिक्षिपन्तमात्मानं प्रतिबोधयतीति' कृते प्रयासेन । तदनेन' हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं प्रतिक्षिप्तं, पक्षस्य प्रत्यक्षादिभिरबाधितत्वात्। तत्र निरतिशयस्यास्वसंविदितस्य सर्वशरीरेष्वभिन्नस्यैकस्य प्रतिक्षणं भिन्नस्य चात्मनः प्रतिभासाभावात्तस्य प्रत्याख्यानाहत्वसाधनान्न तेन जीवशब्दः सबाह्यार्थः ।
में हर्ष-विषादादि अनेकाकार पर्याय ही भाव हैं जिसका कि प्रत्येक आत्मा अनुभव करता है। वह भाव शरीर-शरीर के प्रति भेद करने वाला है। त्याग या खण्डन करने के लिये अयोग्य है। तथा भावों का या अपनी आत्मा का ही खण्डन करने वाले वादी को प्रतिबोधित कर रहा है इसलिये इस विषय में अधिक प्रयास से बस हो।
इस कथन से “हेतु कालात्यपदिष्ट दोष से दूषित है" इसका भी निरसन कर दिया है क्योंकि हमारा पक्ष प्रत्यक्षादि से अबाधित है।
[ सांख्यादि के द्वारा परिकल्पित निरतिशय स्वभाव वाला एवं बौद्धाभिमत प्रतिक्षण भिन्न स्वभाव
वाला जीव शब्द बाह्यर्थ कर सहित हो सकता है ऐसी शंका करने पर आचार्य कहते हैं। ]
निरतिशय, अस्वसंविदित, सभी शरीरों में अभिन्न एक एवं प्रतिक्षण भिन्न रूप आत्मा का प्रतिभास नहीं होता है क्योंकि ऐसी आत्मा निराकरण करने योग्य है ऐसा सिद्ध किया गया है इसलिये इन पर परिकल्पित जीव शब्द से जीव शब्द बाह्यार्थ वाला नहीं है । अर्थात् सांख्य जीव को निरतिशय, नित्य कूटस्थ अपरिणामी मानते हैं । यौग अस्वसंविदित कहते हैं, ब्रह्मवादी कहते हैं कि जीवात्मा सभी शरीरों में अभिन्न एक है। तथा बौद्ध आत्मा को प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही मानता है इस सबके द्वारा माना गया जीव शब्द वस्तुतः बाह्यार्थ सहित नहीं है क्योंकि इन सबकी मान्यना केवल कपोल कल्पित असत्य ही है।
1 भेदाभेदात्मकम् । इति पा० । ब्या० प्र० । शक्त्यपेक्षयाभेदः आत्मापेक्षयाऽभेदः । ब्या० प्र० । 2 इत्यनेन ब्यापकत्व योगपरिकल्पितं निराकृतम् । ब्या० प्र०1 3 अनिराकरणाहः । ब्या० प्र०। 4 जीवम् । ब्या० प्र०। 5 यथेयं विकल्पिका बुद्धिर्युगपदनेकाकारात्तथाहं भावो जीवलक्षणः क्रमेणानेकाकार इति प्रति बोधयत्येव निराकुर्वन्तं वादिनम् । ब्या० प्र०। 6 भाष्येण । ब्या० प्र० । 7 संज्ञात्वादित्यस्य । ब्या० प्र० । 8 प्रत्यक्षादिषु । दि० प्र०। 9 प्रतिशरीरमभेदात्मकत्वविपरीतस्य सौगताभ्युपगतस्य । दि० प्र०। 10 अत्राह पर: मायादिसंज्ञाभिर्धान्तिसंज्ञाभिः स्वकीयार्थरहिताभिः संज्ञात्वादिति साधनं व्यभिचारे भवतीति चेत् । स्या०व० एवं न कस्मात् । मायादिभ्रान्ति संज्ञापि मायाद्यः स्वकीयरथैरर्थसहिता एवेति घटनात् यथा प्रमाणवचनं स्वकीयार्थसहितं कथमित्युक्ते स्याद्वाद्यानुमानं रचयति मायादिसंज्ञा: पक्ष: स्वार्थ । न भवन्तीति साध्यो धर्मः विशिष्टप्रतिपत्तिहेतुत्वात् यथा प्रमाणसंज्ञा =भ्रान्तिसंज्ञाबाह्यार्थाभवन्ति चेत्तदा ताभ्यः संज्ञाभ्यः भ्रान्तिपरिज्ञानस्याघटनात् । भ्रान्तिपरिज्ञानाभावे भ्रान्तिसंज्ञानां प्रमाणत्वप्रतिपत्तिरायाति । दि० प्र०।
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