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अष्टसहस्री
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स० ५० कारिका ८४
न च' जीवो नास्त्येवेति' शक्यं वक्तुं तद्ग्राहकप्रमाणस्य भावात् । तथा हि ।
जीवशब्दः सवाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत् ।
मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च' मायाद्यः स्वः प्रमोक्तिवत् ॥४॥ स्वरूपव्यतिरिक्तेिन शरीरेन्द्रिया दिकलापेन' जीवशब्दोर्थवान् । अतो न कृतः प्रकृतः स्यादिति विक्लवोल्लापमात्र, लोकरूढः समाश्रयणात् । का पुनरियं लोक रूढिः ? यत्राय व्यवहारो जीवो1 गतस्तिष्ठतीति वा । न हि शरीरेयं व्यवहारो रूढस्तस्याचेतन
उत्थानिका-जीव नहीं है इस प्रकार से कहना शक्य नहीं है क्योंकि उसके ग्राहक प्रमाण का सद्भाव है । इस बात को आचार्यवर्य इस कारिका द्वारा बताते हैं
जीव शब्द निज बाह्य अर्थ से, युक्त नित्य चैतन्य पुरुष । चूंकि संज्ञा रूप कहा है जैसे हेतु शब्द सुलभ ।। माया आदि शब्द हैं दिखते, भ्रांत रूप फिर भी वे सब ।
ज्ञान शब्दवत् अपना-अपना, अर्थ प्रकट करते संतत ॥८४।। कारिकार्थ-संज्ञा रूप होने से 'हेतु' इस शब्द की तरह जीव यह शब्द भी जीव लक्षण अपने बाह्य अर्थ से सहित है। जैसे प्रमाण वचन अपने अर्थ से युक्त हैं तथैव मायादि, भ्रांति शब्द अपने मायादि अर्थों से सहित हैं ।।८४॥
शंका-चार्वाक-अपने स्वरूप से व्यतिरिक्त शरीर इन्द्रिय आदि कलापों से जीव शब्द अर्थ वाला है । इसलिये प्रकृत में आया हुआ जीव अनादि निधन है यह बात निश्चित नहीं है।
समाधान-जैन-यह कथन तो विक्लव-विह्वलता से बकवाद मात्र ही है क्योंकि जीव शब्द ने लोकरूढ़ि का ही आश्रय लिया है।
शंका-यह लोकरूढ़ि क्या है ?
समाधान-जहाँ यह व्यवहार है कि जीव गया अथवा रहता है उसे लोकरूढ़ि कहते हैं किन्तु शरीर में यह व्यवहार प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि वह अचेतन है आत्मा के भोग का अधिष्ठानआश्रय होने से ही वह लोक में प्रसिद्ध रूढ़ि है । इन्द्रियों में भी यह व्यवहार नहीं है क्योंकि वे इन्द्रियां उपभोग के साधन रूप से प्रसिद्ध हैं। शब्दादि रूप विषय में भी यह जीव गया अथवा रहता है यह व्यवहार नहीं है क्योंकि शब्दादि विषय भोग्य रूप से माने गये हैं।
1 चार्वाकः । ब्या० प्र०। 2 कुतः । दि० प्र०। 3 अर्थसहितः । दि० प्र०। 4 जीवेति नाम कथनात् । दि० प्र० । 5 इन्द्रजालादि । ब्या० प्र०। 6 सहिताः । ब्या०प्र०। 7 यथा प्रमाणशब्द: प्रत्यक्षादिनार्थवान् तथेदमपि मायादि। दि० प्र०। 8 विषयः । न्या० प्र०। 9 आह चार्वाकः जीवस्वभावरहितेन शरीरेन्द्रियतद्विषयादिकलापेन जीव इति शब्दः सार्थकोस्ति संज्ञात्वादिति प्रारब्धो हेतुः सत्यो न । इत्युक्ते स्याद्वाद्याह चार्वाकस्येति वचो वा भूतजल्पनमात्रं स्यात् कुतो लोकोक्तेरपेक्षणात् । दि० प्र०। 10 लोकरूढौ । अर्थे । दि०प्र०।11 आत्मनः । दि० प्र०।
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