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अष्टसहस्री
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[ स०प० कारिका ८४ शब्दवत् । सर्वेण हि हेतुवादिना हेतुशब्दः सबाह्यार्थोभ्युपगम्यते, साधनतदाभासयोरन्यथा विशेषासंभवात्, वक्राभिप्रायमात्रसूचकत्वादबाह्यार्थत्वाविशेषात्' । तद्विशेषमिच्छता परम्परयापि परमार्थंकतानत्वं वाचः प्रतिपत्तव्यम् । क्वचिद्व्यभिचारदर्शनादनाश्वासे' चक्षुरादिबुद्धरपि' कथमाश्वासः ? तदाभासोपलब्धेस्तत्राप्यनाश्वासे कुतो धूमादेरग्न्यादिप्रतिपत्तिः ? कार्यकारणभावस्य व्यभिचारदर्शनात् । न चेदमसिद्ध काष्ठादिजन्मनोग्नेरिव मणिप्रभतेरपि भावात् । सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरतीति, तद्विशेषपरीक्षायां सुविवेचितः शब्दोर्थ न व्यभिचरतीति 'प्रसिद्धेरितरत्रापि तद्विशेषपरीक्षास्तु, विशेषाभावात् । वक्तुरभिसन्धिवैचि
करण ज्ञान में अर्थक्रिया के नियम का अभाव मानने पर वह करण ज्ञान अनादरणीयअकिंचित्कर ही है। इस प्रकार से यह “संज्ञात्वात्" हेतु विरुद्ध नहीं है । यह जीव शब्द को बाह्यार्थ सहित ही सिद्ध करता है। जैसे हेतु शब्द अपने वाच्य अर्थ को सिद्ध करता है क्योंकि सभी हेतुवादी 'हेतु' शब्द को बा ह्यार्थ-धमादि लक्षण सहित ही स्वीकार करते हैं। अन्यथा हेतु एवं हेत्वाभास में कोई अन्तर ही नहीं हो सकेगा क्योंकि वक्ता के अभिप्रायमात्र का सूचक होने से दोनों में ही बाह्यार्थ से रहित-शून्यता समान ही हो जाती है किन्तु ऐसा तो है नहीं।
__ आप सौगत यद इन दोनों में भेद स्वीकार करते हैं तब तो परम्परा से भी वचनों को परमार्थ के विषय करने वाले स्वीकार करना चाहिये। अर्थात् अर्थ के अनुभवपूर्वक वासना होती है एवं वासनापूर्वक शब्द होते हैं इस प्रकार से परम्परा से भी वचनों के सत्य अर्थ को विषय करने वाले स्वीकार करना चाहिये। कहीं पर मृग-मरीचिकादि में जलादि लक्षण शब्दों का व्यभिचार देखने से उसमें विश्वास न होने पर चक्षु आदि ज्ञान में भी विश्वास कैसे किया जायेगा?
शुक्तिका में रजतज्ञान रूप तदाभास की उपलब्धि होने से सत्य में भी अविश्वास करने पर धूमादि से अग्नि आदि का ज्ञान भी कैसे हो सकेगा? क्योंकि कायकारण भाव में व्यभिचार देखा जाता है यह बात असिद्ध भी नहीं है। जैसे काष्ठादि से अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही सूर्यकांतमणि आदि से भी अग्नि उत्पन्न होती हुई देखी जाती है ।
सौगत-सुविवेचित-सुनिश्चित कार्यकारण को व्यभिचरित नहीं करता है क्योंकि कार्यकारण की विशेष परीक्षा होने पर सुविवेचित शब्द अर्थ को व्यभिचरित नहीं करता है यह बात प्रसिद्ध है।
1 ततश्च । ब्या० प्र०। 2 तयोःसत्साधनासत्साधनयोविशेष वाञ्छता सौगतेन साक्षात परम्परयापि शब्दस्य सत्यत्वं ज्ञेयम् । दि० प्र० । 3 वाचि । दि० प्र० । 4 चक्षुरादीनां संबन्धिनीया बुद्धिरर्थे । दि० प्र० । 5 धूमोत्पत्तिर्यथा । ब्या० प्र०। 6 अग्निलक्षणकार्यम् । ब्या० प्र०।7 का । दि० प्र०। 8 ता। न्या० प्र० ।
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