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अप्रत्यक्षज्ञानवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ ४०५
सारांश अन्तरंगार्थ एवं बहिरंगार्थ के एकान्त का खंडन एवं स्याद्वाद सिद्धि
विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहता है कि अंतरंगार्थ-विज्ञान मात्र ही एक तत्त्व है, किन्तु प्रतिभासित होने योग्य बहिरग पदार्थ वास्तविक नहीं है । ज्ञान तो स्वतः क्षणिक है, अनन्यवेद्य है एवं नाना संतान रूप स्वत: सिद्ध है क्योंकि "स्वरूपस्य स्वतो गति:" ऐसा नियम देखा जाता है। उस ज्ञान में जो ग्राह्य-ग्राहकाकार हैं वे सभी भ्रांत रूप हैं जैसे इन्द्रजालिया के खेल एवं स्वप्नज्ञान । तथैव नील और नीलज्ञान में अभेद है क्योंकि दोनों एक साथ उपलब्ध हो रहे हैं जैसे द्विचन्द्रदर्शन । इस प्रकार से विज्ञान रूप ही एक तत्त्व है अन्य कुछ नहीं है ।
इस पर जैनाचार्य का कहना है कि आपकी इस एकान्त मान्यता से तो हेतु एवं आगम से सिद्ध मोक्ष के लिये उपाय तत्त्व एवं अनुमान तथा आगम सभी मिथ्या ही हो जावेंगे। पुनः अनुमान
और आगम प्रमाणाभास कहे जावेंगे एवं प्रमाण के बिना प्रमाणाभास की सिद्धि असंभव ही है अतः दोनों का ही अभाव हो जावेगा पुनः आप संवृति से भी किसे जानेंगे ? ज्ञान को आपने निर्विकल्प माना है । वह अपने स्वरूप को जानने में विकल्पज्ञान की अपेक्षा रखेगा तब उसका स्वयं का अस्तित्व ही कैसे सिद्ध होगा? और "स्वरूपस्य स्वतो गति:" यह कथन भी कैसे शोभेगा? कारण कि ज्ञान को आपने व्यवसायात्मक माना ही नहीं है।
यदि आप ग्राह्य-ग्राहकाकार को भ्रांत मानते हैं तब तो “ग्राह्य-ग्राहकाकार भ्रांत हैं" इस अनुमान से तो भ्रांतत्व को ग्राह्य बनाकर यह अनुमान स्वयं ही ग्राहक बन बैठा है अतः आपका कथन स्ववचन बाधित हो गया । अथवा यदि आप इस प्रकृत अनुमान को अभ्रांत कहो तो आपका हेतु व्यभिचरित हो जावेगा। भ्रांत मान लेने पर तो सभी विज्ञान तत्त्व अभ्रांत हैं यह कथन भी सिद्ध नहीं होगा। यदि साध्य-साधन के ज्ञान मात्र को आप स्वीकार करेंगे तो सभी अंतर्बाह्य तत्त्व को विभ्रम रूप सिद्ध नहीं कर सकेंगे एवं नील पदार्थ और नील ज्ञान में सर्वथा एकत्व मानमा शक्य नहीं है क्योंकि आपने भी नील पदार्थ और नील ज्ञान रूप विशेष्य में एकत्व विशेषण नहीं माना है अर्थात् आपके यहाँ ज्ञान को छोड़कर एकत्व कोई चीज ही नहीं है। इस प्रकार से केवल अद्वैत को स्वीकार करने से आपके यहाँ प्रतिज्ञा दोष एवं हेतु दोष आते हैं क्योंकि विज्ञान मात्र को मानने पर साध्य, साधन रूप द्वैत कैसे हो सकेगा ?
अतएव "नील और नीलज्ञान में अभेद है" यह प्रतिज्ञा दूषित है तथा "सहोपलम्भात्" यह हेतु भी दूषित है। यदि आप "सहोपलम्भ" हेतु का अर्थ एक ज्ञान ग्राह्यत्वात् करें तो भी द्रव्य, पर्याय से और परमाणु से व्यभिचार दोष आता है क्योंकि जैनों के यहाँ द्रव्य और पर्याय एक मतिज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं फिर भी एक नहीं हैं एवं सौत्रांतिक बौद्ध के यहां रूपादि परमाणु एक चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य हैं फिर भी एक नहीं हैं । आपके यहाँ भी सभी ज्ञान परमाणु एक सुगत ज्ञान के द्वारा ग्राह्य हैं फिर भी एक नहीं हैं। अतएव नीलज्ञान से भिन्न नील पदार्थ पंच इन्द्रियों के द्वारा
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