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अन्तरंगार्थवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ ३८७
विशेषात्, 'तादात्म्यतदुत्पत्त्योरर्थस्वभावनियमात्, तदन्यव्यावृत्तेरास्वभावत्वादेकत्वेन भावस्वभावेन सह 'तदयोगात् । सिद्धेपि प्रतिषेधैकान्ते विज्ञप्तिमात्रं न सिध्येत्; तदसाधनात् । तत्सिद्धो तदाश्रयं दूषणमनुषज्येत ग्राह्यग्राहकभावसिद्धिलक्षणं तद्वद्बहिरर्थसिद्धिप्रसञ्जनं चाविशेषात् । तदेकोपलम्भनियमोप्यसिद्धः, साध्यसाधनयोरविशेषात् । साध्यं हि नीलतद्धियोरेकत्वम् । तदेकोपलम्भोपि तदेव, ज्ञानस्यैकस्योपलम्भादिति हेत्वर्थव्याख्यानात्, सहशब्दस्यकपर्यायत्वात् 'सहोदरो 1 भ्रातेत्यादिवत् । "तथैकज्ञानग्राह्यत्वं द्रव्यपर्यायपरमाणु
अन्य व्यावृत्ति से अर्थ के अस्वभाव-तुच्छाभाव रूप हो जाने से उस अर्थ का भाव-स्वभाव रूप, एकत्व-साध्य के साथ सम्बन्ध का अभाव है। नील, नोलज्ञान में भेदाभाव मात्र प्रतिषेधैकांत के सिद्ध हो जाने पर भी विज्ञान मात्र तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है । क्योंकि पृथक अनुपलब्धि लक्षण हेतु विज्ञानमात्र साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है। उस विज्ञान मात्र के सिद्ध हो जाने पर तो उसके आश्रित दूषणों का प्रसंग आ ही जाता है।
विज्ञान मात्र तो ग्राह्य है और अनुमान उसका ग्राहक है । इस प्रकार से विज्ञानाद्वैत में भी ग्राह्य-ग्राहक भाव सिद्ध हैं, तथैव बाह्य पदार्थों की भी सिद्धि का प्रसंग आ ही जाता है क्योंकि विज्ञान मात्र एवं बाह्य पदार्थ इन दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव समान ही है। यदि आप कहें कि विज्ञान मात्र तत्त्व रूप एक की ही उपलब्धि का नियम है तो यह एकोपलब्धि का नियम भी असिद्ध है क्योंकि पुनः साध्य और साधन में अभेद मानना होगा किन्तु नील और नीलज्ञान का एकत्व तो आपको साध्य है एवं वह एकोपलम्भ हेतु भी एकत्व ही है।
ज्ञान एक ही उपलब्ध होता है इस प्रकार से तो आपने हेतु के अर्थ का ही व्याख्यान कर दिया है । अर्थात् पूर्व में "सहोपलम्भनियमात्" इस हेतु का प्रयोग किया था अब "एकोपलम्भ
1 स्वलक्षण । ब्या० प्र०। 2. अत्राह परः मम नीलमर्थस्वभावोस्ति कस्मात्तदन्यव्यावृत्तः । कोर्थः । अनीलव्यावृत्तिः नीलम् =स्या० वदति तदभावात्मकं नीलमर्थस्वभावो न। कस्मात् । तस्याभावात्मकस्य नीलस्य भावस्वभावेन एकत्वेन संवेदनेन सह सम्बन्धघटनात् सिद्धप्यभावकान्ते विज्ञप्तिमात्रं न सिद्धयेतस्य संविन्मात्रस्य प्रमाणाभावात् = परस्तस्य सिद्धिरस्ति । स्था० वदति तत्सिद्धौ सत्यां स्वरूपस्य स्वतो गतिरिति ग्राह्यग्राहकभावलक्षणं विज्ञप्तिमात्राश्रयणं दूषणं घटेत् । दि० प्र०। 3 अभ्युपगम्योच्यतेऽधिकं दूषणम् । ब्या० प्र०। 4 किञ्च । दि० प्र० । 5 भेदप्रतिषेधकान्ते । दि० प्र०। 6 विज्ञप्तिमात्रसिद्धावनमानात् । दि० प्र०17 अत्राह परः तदेकोपलम्भनियमादिति हेतोर्नीलतद्धियोरभेदं साधयामीत्यूक्ते स्याद्वाद्याहोयं हेतरप्यसिद्धः कस्मात्साध्यसाधनयोर्द्वयोरपि विशेषाभावात् । कथमविशेष इत्युक्त आह । नीलतद्धियोरेकत्वं साध्यं यत् । तदेकोपलम्भोपि तदेवैकत्वं कुतः । ज्ञानमेकमेवोपलभ्यते यतः । इति हेत्वर्थव्याख्यानात् । सहशब्दएकार्थवाची कथमित्याह । सहकोदरो यस्यासौ सहोदरो भ्रातेत्यादिशब्दव्यवहारवत् । दि.1०। 8 एकशब्दः । दि० प्र०। 9एकोदरः। दि० प्र०। 10 सहोदरप्रकारेण । दि० प्र० । 11 तत्रैकज्ञान । इति पा० । दि० प्र० ।
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