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बहिरंगार्थवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३६५ दवस्थत्वात् । न चैवंविधार्थानां परस्परविरुद्धानां सकृत्संभव इति न बहिरङ्गार्थतैकान्तः श्रेयानन्तरङ्गार्थतकान्तवत् ।
विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ॥२॥ अन्तर्बहिर्जेयकान्तयोः सहाभ्युपगमो विरुद्धः स्याद्वादन्यायविद्विषामेव । तदवाच्यतायामुक्तिविरोधः' पूर्ववत् । स्याद्वादाश्रयणे तु न कश्चिद्दोष इत्याहुः ।
द्वारा हेतु में व्यभिचार एवं विरोध दोष ज्यों का त्यों विद्यमान ही है और इस प्रकार से परस्पर विरुद्ध लौकिक एवं अलौकिक अर्थों का होना एक साथ सम्भव नहीं है। अर्थात् इस प्रकृत अनुमान को अलौकिक अर्थ का अवलम्बन लेने वाला मानने पर स्वयं लौकिक अर्थ का अवलम्बन लेने रूप से अभिमत जाग्रत ज्ञान भी अलौकिक अर्थ का अवलम्बन लेने वाले सिद्ध हो जाते हैं। पुनः लौकिक एवं अलौकिक अर्थ एक साथ ही हो जावेंगे किन्तु उनमें परस्पर विरोध होने से उनका युगपत् होना सम्भव नहीं है। इसलिये अंतरंग अर्थ रूप एकान्त मान्यता के समान बहिरंगार्थ रूप एकान्त मत भी थेयस्कर नहीं है ऐसा समझना चाहिये ।
अंतरंग बहिरंग ज्ञेय का, जो ऐकांतिक “ऐक्य" कहा। स्याद्वाद विद्वेषी जन के, मत में सदा विरोध रहा ॥ ज्ञान और बाह्यार्थ वस्तु को, यदी अवाच्य कहा जिसने ।
तब तो वचनों से "अवाच्य" को, कैसे वाच्य किया उसने ।।२।। कारिकार्थ-स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ एकान्त से इन दोनों का उभयकात्म्य भी संभव नहीं है क्योंकि परस्पर में विरोध आता है एवं तत्त्व को अवाच्य रूप स्वीकार करने पर तो "अवाच्य" यह शब्द भी नहीं कहा जा सकता है ।।८२॥
स्याद्वादन्याय के बैरियों के यहां एकांत से अंतरंग एवं बहिरङ्ग रूप ज्ञेय पदार्थ को एक साथ मानना विरुद्ध ही है। इन दोनों की अवाच्यता को स्वीकार करने पर तो शब्द से कथन का ही विरोध आता है पूर्व के समान ।
1 अस्यालौकिकार्थालंबनत्वादित्येतदभिलप्य दूषणान्तरमाह । दि० प्र०। 2 यत्किञ्चित्तत्सर्व बहिरर्थप्रतिबद्धं सर्वे प्रत्यया लौकिकालौकिकार्थालंबनशून्याः प्रत्ययत्वादित्यादिप्रत्ययविषयभूतानां परस्परविरुद्धर्थानाम् । दि० प्र० । 3 आह स्या० यथाप्राक् प्रतिपादितोन्तरङ्ग कार्थेकान्तः श्रेयान्न तथा बहिरङ्गार्थतैकान्तश्च श्रेयान्नेति श्रुत्वा कश्चिदुभयवादी सौगतविशेष आह तह्य भयकात्म्यं श्रेयस्करं भवतु । इत्युक्ते, आचार्या आहुनिषेधं कारिकायां व्यक्तम । दि० प्र०। 4 अन्तरंगार्थबहिरंगार्थयोः । दि० प्र०। 5 अन्तर्बहिर्जेययोः सहाभ्युपगमो विरुद्धः । दि० प्र०। 6 तथैव । इति पा० । दि० प्र० । तयोरुतर्बहिरर्थयो । दि० प्र०। 7 अन्तरङ्गार्थकान्तबहिरङ्गर्थतकान्ताभ्यामवाच्यतायाम् । दि० प्र०। 8 ज्ञानस्वरूपमेव । ब्या० प्र० ।
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