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मीमांसकमान्य परोक्षज्ञानवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३९७ नात्' । तथानभ्युपगमेन्यत एव बुद्धरनुमानं स्यात् । तच्चायुक्तं लिङ्गभावात् । तत्रार्थज्ञानमलिङ्ग, तदविशेषेणासिद्धेः' ।
[ मीमांसकाभिमताप्रत्यक्षज्ञानस्य निराकरणं । ] स्वयमप्रत्यक्ष ज्ञानं ह्यर्थपरिच्छेदादनुमीयते इत्यर्थज्ञानं 'कर्मरूपमर्थस्य प्राकट्यं तल्लिङ्गमिष्यते स हि 'बहिर्देशसंबद्धः प्रत्यक्षमनुभूयते, ज्ञाते त्वनुमानादवगच्छति बुद्धिमिति
बौद्ध - वह प्रत्यक्ष ज्ञान तो निविकल्प है । अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प है बाकी के सविकल्प ज्ञान प्रमाणाभास हैं अतः प्रमाणाभास का निन्हव कैसे किया जा सकेगा ?
जैन-यह आपका कथन अयुक्त है क्योंकि ज्ञान में स्वार्थ व्यवसायात्मक के बिना प्रत्यक्षपना असंभव है ऐसा हमने प्रथम परिच्छेद में ही समर्थित कर दिया है।
इस प्रकार से यदि आप सभी ज्ञान को स्वसंवेदन रूप से भी प्रत्यक्ष रूप स्वीकार नहीं करेंगे तब तो अन्य ही (अर्थापत्ति हेतु से, ज्ञान का अनुमान किया जावेगा।
मीमांसक हमें ऐसा इष्ट ही है इसलिये कोई दोष नहीं है।
जैन-ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि परोक्ष ज्ञान को ग्रहण करने वाले हेतु का अभाव है। उस बुद्धि में अर्थ की प्रकटता रूप ज्ञान हेतु से रहित है क्योंकि उस लिंग की सामान्य रूप से असिद्धि है।
[ अप्रत्यक्ष ज्ञानवादी मीमांसक का खण्डन 1 मीमांसक-ज्ञान तो स्वयं अप्रत्यक्ष ही है। वह अर्थ के परिच्छेदन से अनुमित किया जाता है । इसलिये अर्थज्ञान कर्मरूप है एवं अर्थ की प्रकटता ही उस परोक्ष ज्ञान का लिंग है ऐसा हमने माना है और वह पदार्थ ही बाह्य देश से संबंधित होने से प्रत्यक्ष रूप से अनुभव में आता है।
1 पर आह तत्र बुद्धी अर्थज्ञानं लिङ्गमस्ति =स्या० वदति तल्लिङ्ग न कस्मात् । तयोः स्वज्ञानार्थज्ञानयोः परोक्षत्वेन समानत्वान् बुद्धेः लिङ्गस्याघटनात् =पर आह हि यस्मात् स्वज्ञानं स्वरूपेण परोक्षं बहिरर्थज्ञानानिश्चीयत इति अर्थज्ञानं कर्मरूपमर्थजनितं तत्किमर्थस्य प्रकटत्वं तबुद्धेलिङ्ग कथ्यते सहि बहिर्देशसंबद्धो घटपटाद्यर्थः साक्षानिश्चीयते । कस्माद्वहिरर्थे ज्ञाते सति पुरुषोनुमानबलात्ज्ञानं जानाति ममेदृशं ज्ञानमस्ति ईदृगर्थपरिच्छेदान्यथानुपपत्ते इत्यस्मात्सिद्धान्तात् । दि० प्र०। 2 परोक्षज्ञानार्थज्ञानस्य । दि० प्र०। 3 प्रकाशक्रिया। दि० प्र० । 4 अर्थस्यासिद्धत्वे न प्राकट्यमपि असिद्धं भविष्यतीत्याशंकायामाह स बहिर्देशेति । दि० प्र०। 5 बसः। ब्या. प्र०। 6 स्याद्वादी परमाह। तद्वहिरर्थप्रकटत्वमर्थधर्मो ज्ञानधर्मो वेति विकल्पः। अर्थधर्म इति प्रथमपक्षेऽर्थनिश्चायकात्मज्ञानात्सकाशात् इतरस्यार्थज्ञानस्य परोक्षेण कृत्वा विशेषाभावादर्थज्ञानं तस्या बुद्धलिङ्ग न कुतो घटनात् । = तयोः स्वार्थज्ञानयोः विशेषो न तस्य ज्ञानस्यास्वविदितत्वात् अर्थज्ञानं स्वस्वरूपं न जानात्यनुमानाज्जानातीति चेत् । तदप्यनुमानं स्वं न जानात्यन्यप्रमाणमपेक्षते तदप्यन्यदेवमनवस्थाप्रसंगः स्यात् । दि० प्र० ।
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