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अष्टसहस्री
[ स०प० कारिका ८०
साधनात्साध्यरूपं प्रान्तादपि संभवति, अभावेऽभावयोः संभवाविरोधात् । ततो न साध्यसाधनविकलो दृष्टान्त इति न शक्यप्रतिष्ठं, 'कथंचिदर्थस्वभावानवबोधप्रसङ्गात् सर्वविज्ञानस्वलक्षणक्षणक्षयविविक्तसन्ततिविभ्रमस्वभावानुमिते:' साकल्येनकत्वप्रङ्गात्, तदन्यापोहमात्राद्धेतोरन्यापोहमात्रस्यैव सिद्धेरर्थस्वभावानवबोधात् । किं च सकृदुपलम्भनियमे हेत्वर्थे सति एकार्थसंगतदृष्टयः परचित्तविदो वा नावश्यं तद्बुद्धि तदर्थं वा संविदन्तीति हेतोरसिद्धिः, नियमस्यासिद्धेः। किञ्च' सहोपलम्भनियमश्च स्याभेदश्च स्यात् । कि
साधन अर्थात् सहानुपलम्भाभाव एवं भेदभाव रूप साध्य-साधन अविरोध रूप से सम्भव हैं। इसलिये हमारा दृष्टांत साध्य-साधन धर्म से विकल नहीं है ।
जैन-ऐसी व्यवस्था करना भी शक्य नहीं है । इस प्रकार के अनुमान से तो किसी भी प्रकार से पदार्थ के स्वभाव का ज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि सर्वविज्ञान के स्वलक्षण क्षण क्षय एवं उससे भिन्न संतति रूप विभ्रम स्वभाव का अनुमान के द्वारा ज्ञान हो जाने से संपूर्णतया दोनों में एकत्व का प्रसंग जा जावेगा । कारण अन्यापोह मात्र हेतु से अन्यापोह मात्र ही साध्य की सिद्धि हो सकेगी, पुनः उससे अर्थस्वभाव का ज्ञान नहीं हो सकेगा।
दूसरी बात यह है कि नील और नीलज्ञान की सकृत उपलब्धि होती है ऐसा हेतु का अर्थ करने पर एक पदार्थ में जिनकी दृष्टियां संलग्न हैं ऐसे पुरुष एकार्थ संलग्न पुरुष की बुद्धि को अथवा परचित्त के वेत्ता परचित्त रूप अर्थ को अवश्य ही नहीं जान सकेंगे इसलिये व्याप्ति की असिद्धि होने से हेतु भी असिद्ध हो जावेगा । अर्थात् नियम से परचित्त को जानने वाले पुरुष पर चित्त के अर्थ को नहीं जान सकेंगे किन्तु जानते हैं ऐसा व्यवहार देखा जाता है।
दूसरी बात यह है कि सहोपलभ्य नियम भी होवे तथा भेद भी होवे बाधा क्या है ? दोनों में
1 क्षणिकत्वादिस्वभावेन । ब्या०प्र० । 2 विज्ञानान्येव स्वलक्षणानि तेषां क्षणक्षयादि । ब्या०प्र०। 3 भेद । ब्या० प्र०। 4 नीलतद्धियोरैक्यं सहोपलं भनियमात् । यत्र सहोपलं भनियमस्तक्यमित्याशं कायामाह । ब्या० प्र० । 5 यगपत । ब्या० प्र०। 6 नियमेन । ब्या० प्र०। 7 किञ्च स्याद्वाद्याह । नीलतद्धियोः पक्षोभेदो भवतीति साध्यो धर्मः सहोपलंभनियमात । यत्र सहोपलभस्तत्राभेद इत्यन्वयासंदिग्धो हेतः यत्राभेदाभावः कोर्थो भेदस्तत्र सहोपलभा. भावः= इति न सहोपलं भनियमश्च स्यात् । यथाग्नेरभाव: स्याद्धमसद्भावः स्यादिति व्यतिरेकेण संदिग्धो हेतुस्तव हे संवेदवादिन् = सहोपलंभनियमाद्भदः कथं सिद्धयतीत्युक्त आह। एकस्मिन् कर्कटिकादौ रूपरसादीनां पक्षः भेदो भवतीति साध्यो धर्मः सहोपलंभः नियमादिति कि विरुद्ध यते अपितू न कस्मात् । निजनिजावरणक्षयोपशमप्रतिसियमात् । स्पर्शनेन्द्रियं स्पर्श रसनेन्द्रियं रसं चक्षुरिन्द्रियं रूपमित्यादि युगपदिन्द्रिययाणि स्वस्वविषयं गृह्णन्ति । दि०प्र०।
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