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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ ३७१ तदेवं स्यात्सर्वं हेतुतः सिद्ध करणाप्तवचनानपेक्षणातु । स्यादागमात्सिद्धमक्षलिङ्गानपेक्षणात् । स्यादुभयतः सिद्ध, क्रमापितद्वयात् । स्यादवक्तव्यं, सहार्पितद्वयात् । शेषभङ्गत्रयं च पूर्ववत् । इति सप्तभङ्गीप्रक्रिया योजनीया ।
नहीं करती हैं। सभी वस्तुयें कथंचित् आगम से सिद्ध हैं क्योंकि इन्द्रिय और हेतु की अपेक्षा नहीं करती हैं। कथंचित् उभय रूप से सिद्ध हैं क्योंकि कम से दोनों हेतुओं की अपेक्षा है। कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ दोनों हेतुओं की अर्पणा है। शेष तीन भंग भी पूर्ववत् लगा लेना चाहिये । इस प्रकार से सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित कर लेना चाहिये।
सारांश "एकांतिक हेतुवाद अथवा आगमवाद का खंडन, स्याद्वादसिद्धि"
बौद्ध हेतु से ही तत्त्व की सिद्धि मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादी आगम से ही परमब्रह्म को सिद्ध करते हैं । वैशेषिक एवं सौगत प्रत्यक्ष और अनुमान से ही तत्त्वों की सिद्धि मानते हैं । इन सबका आचार्य खंडन करते हैं।
बौद्ध का पक्ष-सभी उपेयतत्त्व हेतु से ही हैं प्रत्यक्ष से नहीं क्योंकि प्रत्यक्ष होने के पर विसंवाद संभव हैं । कारण जो युक्ति से घटित नहीं होता उसे हम देखकर भी श्रद्धा नहीं करते हैं। प्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्षाभास की व्यवस्था भी अनुमान से ही होती है क्योंकि प्रत्यक्ष तो निर्विकल्पक है।
जैन-अनुमान की उत्पत्ति के लिये धर्मी, साधन और उदाहरण का देखना अवश्यम्भावी है। धर्मी-पर्वत, साधन-धूम और उदाहरण-रसोईघर को देखकर तथा अग्नि को नहीं देखकर ही अनुमान होता है। आपके यहाँ हेतु को ही प्रमाण मानने पर तो प्रत्यक्ष आदि अप्रमाण हो जावेंगे पुनः अनुमान उत्पन्न नहीं हो सकेगा। शास्त्र के उपदेश से भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा किन्त अभ्यस्त विषय में प्रत्यक्ष से भी तत्व की सिद्धि होती है क्योंकि शब्द और हेतु आदि से भी ज्ञान देखा जाता है तथा परार्थानुमान रूप शास्त्रोपदेश की प्रवृत्ति भी स्पष्टतया देखी जाती है। अतः केवल हेतुवाद श्रेयस्कर नहीं है।
1 तस्मात् । दि० प्र०।
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