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अथ सप्तमः परिच्छेदः ।
अंतस्तत्त्वं बहिस्तत्त्वं, पश्यति ज्ञानचक्षुषा । स्याद्वादस्वामिनो वंदे, स्वात्मतत्त्वस्य सिद्धये ॥ निर्दिष्टो यः शास्त्रे हेत्वागमनिर्णयः प्रपञ्चेन ।
*गमयत्यष्टसहस्री संक्षेपात्तमिह सामर्थ्यात् ॥१॥ अन्तरङ्गार्थतैकान्ते' बुद्धिवाक्यं मृषाखिलम् । प्रमाणाभासमेवातस्तत्' प्रमाणादृते कथम् ॥७६॥
"अथ सप्तम परिच्छेद"
अर्थ-जिन्होंने अपने ज्ञान नेत्र के द्वारा अंतरंग तत्त्व और बाह्य तत्त्व को देख लिया है ऐसे स्याद्वाद के स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव की हम स्वात्मतत्त्व की सिद्धि के लिये वंदना करते हैं। (यह मंगलाचरण श्लोक अनुवाद की द्वारा रचित है।)
श्लोकार्थ-श्री स्वामी समन्तभद्राचार्यवर्य कृत मूल देवागमस्तोत्र में जो हेतु और आगम का निर्णय विस्तृतरूप से किया गया है उसी को अपनी शक्ति के अनुसार यह अष्टसहस्री संक्षेप से बतलाती है ॥१॥
स्वसंविदित जो ज्ञान तत्त्व है, अन्तरंग यदि अर्थ वही । तब बुद्धि-अनुमान, शास्त्र सब, बाह्य वस्तु हैं मृषा सही । अतः प्रमाणाभास हुये ये, अनुमान आगम चूंकि मृषा।
बिन प्रमाण के कहाँ प्रमाणाभास बनेगा सभी सफा ॥७॥ कारिकार्थ-यदि अंतरंग-ज्ञानरूप पदार्थ को ही वास्तविक मानकर उसका एकांत स्वीकार किया जावे, तब तो सभी बुद्धि-अनुमान और वाक्य-आगम मिथ्या ही हो जावेगा। अतः वे बुद्धि और वाक्य प्रमाणाभास ही सिद्ध होंगे। पुनः वह प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना कैसे सिद्ध हो सकेगा? ॥७६॥
1 विस्तारेण । दि० प्र०। 2 ज्ञापयति । ब्या०प्र० 13 परमार्थतो विज्ञानाद्वतकान्तेंगीक्रियमाणे सति । दि० प्र०। 4 बुद्धिवाक्यम् । ब्या०प्र०। 5 बुद्धिवाक्यं । मषा यतः । सत्यरूपात । दि०प्र०।
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