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अष्टसहस्री
[ ५० ५० कारिका ७८ नैकान्ताद्धैतुवादः प्रभवति सकलं सत्त्वमुन्नेतुमेक
स्तद्वन्नाहेतुवाद: प्रवद (भव)ति विहिताशेषशङ्काकलापः। इत्यार्याचार्यवर्या वदधति निपुणं स्वामिनस्तत्त्वसिध्ये स्याद्वादोत्त ङ्गसौधे स्थितिमलधियाँ प्रस्फुटोपायतत्त्वे । १ ।
इत्याप्तमीमांसालंकृतौ षष्ठः परिच्छेदः ।
कोई केवल अनुमान को ही प्रमाण मानते हैं। कोई केवल आगमवाद का ही आदर करते हैं। इन तीनों का ही निरसन किया गया है एवं आगमवादियों में एक वेदांती है जो केवल वेद को ही प्रमाण मानते हैं उनका विशेष रूप से विचार करके खण्डन किया गया है। इस प्रकार से इस परिच्छेद का तात्पर्य है।
श्लोकार्थ-सर्वथा एकान्त से एक अकेला हेतुवाद सम्पूर्ण तत्त्वों की व्यवस्था करने में समर्थ नहीं है, तथैव ईश्वरादि के विषय में अनेक शंकाओं को कराने वाला आगमवाद भी तत्त्वों की व्यवस्था में समर्थ नहीं है ।।
अतएव श्री स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य तत्त्वसिद्धि के लिए निपुणतया प्रस्फुट उपाय तत्त्वभूत, स्याद्वादमय ऊँचे महल में निर्मलबुद्धि वाले शिष्यों की स्थिति को करते हैं । अर्थात् मोक्षप्राप्ति के उपायभूत स्याद्वाद रूपी महल में शिष्यों को पहुँचाते हैं, स्थिर करते हैं। दोहा- चिच्चिंतामणिरत्न जिन, चिंतितफलदातार ।
तुम वचनामृत भव्य को, अजर अमर करतार ।। इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यकृत "आप्तमीमांसालंकृति" अपरनाम "अष्टसहस्री" ग्रन्थ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत भाषा अनुवाद, पद्यानुवाद, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस "स्याद्वादचितामणि" नामक टीका में यह छठा परिच्छेद
पूर्ण हुआ।
1 अनुमानकथनम् । दि० प्र०। 2 उपेयम्। 3 व्यवस्थापयितुम् । ब्या० प्र०। 4 हेतुवादवत् । आगम एव । दि० प्र०। 5 उपेयतत्त्वम् । ब्या०प्र०। 6 समन्तभद्राः । दि०प्र०। 7 स्थाद्धेतुतः स्यादागमतः सिद्धमिति । ब्या० प्र०। 8 अनुमाने आगमे शास्त्रे देवागमे ।
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