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अन्तस्तत्त्ववाद का खण्डन ।
तृतीय भाग
[ ३७७ तज्जन्मताद्रूप्यतदध्यवसायान् प्रत्येक वेद्यवेदकलक्षणं चक्षुषा समानार्थसमनन्तरवेदनेन शुक्तिकायां रजताध्यवसायेन च व्यभिचारयितुमीशः, सह वा समानार्थसमनन्तरज्ञानेन कमलाधुपहतचक्षुषः शुल्के' शङ्ख पीताकारज्ञानसमनन्तरज्ञानेन वा सौत्रान्तिकान्प्रति व्यभिचारि प्रतिदर्शयेत् । कथं वा कार्यनिमित्तकारणत्वं' तल्लक्षणं यौगान्प्रत्यनकान्तिकं व्यवस्था
अभाव में तदुत्पत्ति, ताद्रूप्य और तदध्यवसाय रूप प्रत्येक को वेद्यवेदक भाव मानने पर चक्षु के द्वारा समानार्थ समनन्तर ज्ञान से एवं शुक्तिका में रजत के अध्यवसाय से व्यभिचार दोष देना शक्य नहीं है । अर्थात् बौद्धों ने पदार्थ से ज्ञान को उत्पत्ति मानी है। पदार्थ वेद्य है और पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान वेदक है । ज्ञान में होने वाला नीलाकार वेद्य है, नीलाकार ज्ञान वेदक है । अध्यवसेय-निर्णय करने योग्य अर्थात् जानने योग्य पदार्थ वेद्य हैं और उसका अध्यवसाय-जानना वेदक है । इस प्रकार से तदुत्पत्ति, ताद्रूप्य और तदध्यवसाय में वेद्य-वेदक भाव पाया जाता है।
अथवा प्रमाण के अभाव में समानार्थ समनन्तर ज्ञान से एक साथ व्यभिचार दोष नहीं दे सकते, अथवा कामलादि दोषों से दूषित चक्षु का शुक्ल शंख में पीताकार ज्ञान-समनन्तर ज्ञान से सौत्रान्तिक बौद्धों के प्रति वेद्यवेदक रूप व्यभिचार दोष को नहीं दिखला सकते हैं ।
__ अथवा प्रमाण के अभाव में कार्य निमित्तकारणत्व वेद्य-वेदक लक्षण, यौगों के प्रति अनैकांतिक को कैसे व्यवस्थापित करेंगे ? अर्थात् यौगों ने अर्थ को ज्ञान का निमित्त कारण माना है। इसलिये उन्हें चक्ष के द्वारा अनेकांतिक दोष कैसे दिया जावेगा ? चक्षु तो ज्ञान में निमित्त कारण है और ज्ञान कार्य है । प्रमाण को न मानने पर यह व्यभिचार दोष कैसे दिया जावेगा ?
1 अत्राह स्याद्वादी नीलादिवस्तुनः सकाशाज्जातं ज्ञानं तज्जन्म इत्युच्यते बहिस्तत्त्ववादिभिस्तच्च वेद्यवेदकरूपं चक्षुर्नीलवस्तुभ्यां जातं नीलज्ञानं नीलं गृह्णाति चक्षुः स्वरूपं न गृह्णातीति चक्षुषा कृत्वाऽन्तस्तत्त्ववादी प्रमाणाभावे सति बहिस्तत्त्ववाद्यंगीकृतस्य तज्जन्मनो व्यभिचारं प्रतिपादयितु समर्थो नहि तथा तापस्य सदशार्थप्रवर्तमानपरिज्ञानेन व्यभिचारं प्रतिपादयितु समर्थो न हि तथा तदध्यवसायस्यापि शक्तिखण्डे रजताध्यवसाये न कृत्व व्यभिचारं प्रतिपादयितुमीशो नहि अन्तस्तत्त्ववादी । दि० प्र० । 2 अनेकान्तः । ब्या० प्र० । 3 वा अथवा । तज्जन्मताद्रूप्यतदध्यवसायानां युगपन्नीलादिसमानार्थाज्जातेन देवदत्तयज्ञदत्तादीनामुत्तरोत्तर लक्षणज्ञानेन कृत्वा प्रमाणाभावेऽन्तस्तत्त्ववादी व्यभिचारयितुमीशो बहि । दि० प्र०। 4 वा अथवा काचकामलादिदोषदुष्टचक्षुषः पुंसः श्वेतशंखे पीताकारपरिणतं ज्ञानमुत्तरक्षणसमुत्पन्नसविकल्पकज्ञानेन कृत्वा बहिस्तत्त्ववादिनः सौगतभेदान् प्रति प्रमाणभावेऽन्तस्वतत्ववादी व्यभिचारि नहि प्रदर्शयेत् । ब्या प्र०। 5 प्रमाणाभाव । ब्या० प्र०। 6 ज्ञानस्य । ब्या० प्र०। 7 वा अथवा तनुभवनकारणादिक पक्षः बुद्धिमत्कारणकं भवतीति साध्यो धर्मः संनिवेशविशिष्टत्वात्कार्यत्वाद्वा यथा जीर्णप्रासादादि इत्याद्यनुमानसाधितं कार्यकारणलक्षणं महीमहीधरादिदर्शनेन कृत्वा योगान् प्रति प्रमाणाभावेऽन्त. स्तत्त्ववादी व्यभिचारीति कथं सम्भावयेत् । दि० प्र० ।
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