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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ ३६७
तेन' तस्य व्यभिचारात्। एतेन वेदैकदेशेन स्वयमप्रमाणतयोपगतेनानादित्वस्यापौरुषेयत्वस्य चानकान्तिकत्वमुक्तम् । किं च कारणदोषनिवृत्तेः कार्यदोषाभावकल्पनायां पौरुषेयस्यैव वचनस्य 'दोषनिवृत्तिः कर्तुतिदोषस्यापि संभवात् 'दोषावरणयोर्हानिः' इत्यादिना संसाधनात्, न पुनरपौरुषेयस्य, 'तदध्येतृव्याख्यातृश्रोतृणां रागादिमत्त्वाद्वीतरागस्य कस्यचिदनभ्युपगमात्, सर्वथाप्यपौरुषेयस्य तदुपगमेन विरोधात् । नेतरस्य, 'कथंचित्पौरुषेयस्य तदविरोधात् । इति निश्शङ्क नश्चेतः, त्रिविप्रकृष्टस्यापि निर्णयोपायप्रतिपादनादिति । 1°वक्तृगुणापेक्षं 'वचनस्याविसंवादकत्वं चक्षुर्ज्ञानदत्, विसंवादस्य तद्दोषानुविधानात् । वह भी अनादि तथा अपौरुषेय है फिर भी उसमें अविसंवादकता नहीं है इसलिये अनादित्व और अपौरुषेयत्व हेतु व्यभिचरित हो जाते हैं। इसो कथन से वेद के एक देश को स्वयमेव अप्रमाण रूप से स्वीकार करने से ये अनादित्व और अपौरुषेयत्व हेतु व्यभिचरित है ऐसा कहा गया है। अर्थात् "अग्निमीडे पुरोहितं आप: पवित्र" इत्यादि स्वरूप के निरूपक वाक्यों को उन्होंने स्वयं अप्रमाण माना है और "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग कामः" इत्यादि रूप से कार्य के अर्थ में उन वेद वाक्यों को प्रमाण माना है अतः उन्हीं वेदों में कुछ अंश प्रमाण एव कुछ अंश अप्रमाण होने से दोनों हेतु व्यभिचरित सिद्ध हो जाते हैं।
दूसरी बात यह है कि कारण दोष का अभाव होने से ही कार्य में दोषों का अभाव होता है ऐसी कल्पना करने पर तो पौरुषेय वचन में ही दोषों का अभाव हो सकता है क्योंकि दोषों से रहित कर्ता भी संभव हैं।
"दोषावरणयोर्हानिः" इत्यादि कारिका के द्वारा निर्दोष कर्ता की सिद्धि की जा चुकी है। किन्तु अपौरुषेय वचनों में दोषों का अभाव सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि उन अौरुषेय वेदों के अध्येता, व्याख्याता और श्रोता रागादिमान हैं। आप मीमांसक ने तो किसी को वीतराग स्वीकार ही नहीं किया है । एवं वीतराग को स्वीकार करने पर तो सर्वथा अपौरुषेयत्व विरुद्ध हो जाता है।
किन्तु पौरुषेय वचन में विरोध नहीं आता है क्योंकि किसी को वीतराग स्वीकार कर लेने पर वेद वचनों को कथंचित् पुरुषकृत मानना ठीक है, और इसीलिये मुझ-अकलंक देव का मन
1 म्लेच्छव्यवहारादिना । व्या० प्र० । दर्शनात् । व्या० प्र०। 3 व्यभिचारदर्शनेन । ब्या० प्र०। 4 स्यान्न पुनः पौरुषेयस्य वचनस्य दोषनिवृत्ति: । ब्या० प्र० । 5 वेद । ब्या० प्र०। 6 वेदस्य । दि० प्र०। 7 वचनस्य । दि० प्र०। 8 दोषनिवत्तिः । दि०प्र०। 9 स त्वमेवासि निर्दोष इत्यादि सूक्ष्मान्तरितदूरार्था इत्यादि च । दि०प्र० । 10 वचनं पक्षो विसंवादं भवतीति साध्यो धर्म:-वक्तगुणापेक्षित्वात् । यद्वक्ताणापेक्षं तदविसंवादं यथा चक्षानं करणं पुरुष: कार्य तद्वचनं कारणस्य निर्दोषत्वे कार्यस्य निर्दोषता याति = असत्यं वचः दोषवद्वक्तारमनुकरोति कथमित्युक्त अग्रदृष्टान्तेन द्रढयति । दि० प्र० । 11 अर्थाव्यभिचारित्वम् । व्या० प्र.। 12 वचनस्य । ब्या० प्र० ।
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