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हेतुवाद और आगमवाद के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३४६ अपेक्षकान्तादिप्रबलगरलोद्रेकदलिनी प्रवृद्धानेकान्तामृतरस निषेकानवरतम् । प्रवृत्ता वागेषा सकलविकलादेशवशतः समन्ताद्भद्रं वो दिशतु मुनिपस्याऽमलमते:11 ।।
इत्याप्तमीमांसालकृतौ पञ्चमः परिच्छेदः ।
श्लोकार्थ – अमल-निर्दोष बुद्धि के धारक श्री मुनिराज संमतभद्र स्वामी की वाणी सकलादेश रूप पदार्थ का विषय करने वाली है -प्रमाणाधीन है और विकलादेश रूप-वस्तु के एक देश को कहने वाली होने से नयाधीन है।
इस प्रकार के प्रमाण और नय के निमित्त से जो प्रवृत्त हुई है और अपेकांत, अनपेक्ष कांत आदि रूप प्रबल विष के उद्रेक को दलन करने वाली है। हमेशा ही बढ़ते हुये अनेकांत रूप अमृत रस के निषेक रूप है अर्थात् अनेकांतमय अमृत रस को झराने वाली है । ऐसी श्री संमतभद्र स्वामी को वाणी तुम सभी को “संमतात्" सब तरफ से "भद्रं ' कल्याण को प्रदान करे ।
सार – इस परिच्छेद में सभी वस्तुओं की और उनमें होने वाले धर्मों की कथंचित् आपेक्षिक एवं कथंचित् अनापेक्षिक सिद्वि दिखाई गई है और उस-उस अपेक्षावाद अनपेक्षावाद रूप एकांत का निरसन किया गया है।
दोहा-स्याद्वाद वाणी नमू, सर्वसिद्धि सुख हेतु ।
भवसमुद्र से भव्य को, पार करन यह सेतु ॥१॥ इस प्रकार श्रीविद्यानंदि आचार्य विरचित अष्टसहस्री ग्रंथ में ज्ञानमती आर्यिकाकृत कारिका पद्यानुवाद, अर्थ, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश से सहित इस स्याद्वाद चिंतामणि नामक हिन्दी भाषा टीका में यह
पाँचवाँ परिच्छेद पूर्ण हुआ।
1 उत्कर्ष । दि० प्र.। 2 यसः । दि० प्र०। 3 एव । दि० प्र०। 4 भा। दि० प्र०। 5 अनेकान्तामृतरसेन निषेको यस्या वाचः सा । दि० प्र०। 6 निरन्तरम् । दि० प्र०। 7 प्रतिपादन । दि० प्र०। 8 सामस्त्येन । दि० प्र०। 9 कल्याणरूपं सुखम् । दि० प्र० । 10 प्रयच्छतु । दि० प्र० । 11 निर्मलबुद्धेः । दि० प्र० ।
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