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हेतुवाद और आगमवाद के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३५५ नियामकाभावात् । कथं च 'श्रौत्रप्रत्यक्षस्याप्रमाणत्वे. वैदिक शब्दस्य 'प्रतिपत्तिर्यतस्तदर्थनिश्चयः स्यात् ? 'प्रमाणत्वे कुतोनुमानाभावे संवादविसंवादाभ्यां प्रमाणेतरसामान्याधिगमो यतः किंचिदेव श्रौत्रं प्रत्यक्षं प्रमाणं "नान्यदिति व्यवतिष्ठेत ? 'ततः कुतश्चिदागमात्तत्वसिद्धिमनुरुध्यमानेन प्रत्यक्षानुमानाभ्यामपि तत्त्वसिद्धिरनुमन्तव्या, अन्यथा तदसिद्धः ।
__ तथा च परमब्रह्म की ही अपौरुषेय रूप आगम से सिद्धि होती है किन्तु कर्मकाण्ड-यज्ञादि क्रियाओं के प्रकरण की एवं ईश्वर आदि के प्रवाद की सिद्धि नहीं होती है इस प्रकार का नियम भी कोई नहीं दिख रहा है । एवं श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाले श्रावण प्रत्यक्ष को अप्रमाण मान लेने पर वैदिक शब्दों का ज्ञान भी कैसे हो सकेगा कि जिससे उन वेदों के अर्थ का निश्चय हो सके अर्थात् वेद वाक्यों के अर्थ का भी निश्चय नहीं हो सकेगा क्योंकि आपने तो सभी प्रत्यक्ष को अप्रमाण मान लिया है।
यदि आप उस श्रोत्रेन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष को प्रमाण मान लेंगे तब तो अनुमान के अभाव में संवाद के होने से यह प्रमाण है और विसंवाद के होने से यह अप्रमाण है इस प्रकार का प्रमाण अप्रमाण रूप सामान्य ज्ञान भी कैसे हो सकेगा कि जिससे कोई वेद को ग्रहण करने वाला या ब्रह्मवाचक शब्द को ग्रहण करने वाला श्रावण प्रत्यक्ष ही प्रमाण हो सके और अन्य इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण न हो सके, यह व्यवस्था भी कैसे बन सकेगी ? अर्थात् "इदं श्रौत्रं प्रत्यक्षं प्रमाणं संवादकत्वात् इदं त्वप्रमाणं विसंवादकत्वात्" 'यह श्रोत्र इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रमाण है क्योंकि यह विसंवादक है किन्तु यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष अप्रमाण है क्योंकि यह विसंवादक है' इस प्रकार के अनुमान के अभाव में श्रावण प्रत्यक्ष को ही प्रमाणता कैसे बन सकेगी? इसलिये किसी आगम के द्वारा तत्त्वसिद्धि को स्वीकार करते हुये आप ब्रह्माद्वैतवादियों को प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा भी तत्त्व की सिद्धि स्वीकार करना चाहिये । अन्यथा केवल भागम को ही प्रमाणिक मानोगे तब तो वह आगम भी सिद्ध नहीं हो सकेगा।
1 पूनराह स्याद्वादी श्रोत्रयोरिदं श्रोत्रं श्रौत्रञ्च तत्प्रत्यक्षञ्च श्रौत्रप्रत्यक्षं तस्य सत्त्वे सति वेदशब्दानां निश्चितिः कथं स्यात् तस्य वैदिकशब्दस्यार्थनिर्णयः यतः कुतः स्यान्न कुतोपि । दि० प्र०। 2 शब्दग्राहकस्य। श्रोत्रप्रत्यक्षस्य । दि० प्र०। 3 वैदिकशब्दः । दि० प्र० । 4 आह पर: श्रौत्रप्रत्यक्षं प्रमाममस्तीति स्या० व. श्रौत्रप्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वे जाते सत्यनुमानमपि प्रमाणम् । अन्यथानुमानस्यानङ्गीकारे संवाद-विसंवादाभ्यां कृत्वेदं प्रमाण मिदमप्रमाणमिति सामान्यपरिज्ञानं कुतो न कुतोपि श्रोत्रप्रत्यक्षमेवप्रमाणम् । अन्यत्र नेत्र-प्रत्यक्षरसनाप्रत्यक्षानुमानादिकं न । इति यतः कुतो व्यवतिष्ठेत । न कुतोपि । दि० प्र०। 5 प्रमाणत्वाप्रमाणत्व । दि० प्र०। 6 ईश्वरादिशब्दग्राहिश्रोत्रप्रत्यक्षम् । दि० प्र०17न व्यवतिष्ठते यतः। ब्या०प्र० ।
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