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अष्टसहस्री
[ षष्ठ प० कारिका ७६ [ केचित् वैशेषिकाः सौगताश्च प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेव तत्त्वसिद्धि मन्यते किंतु जैनाचार्यास्तदपि निराकुर्वति। ]
प्रत्यक्षानुमानाभ्यामेव तत्त्वसिद्धिर्नागमादित्यपरे तेपि न सत्यवादिनः, ग्रहोपरागादेस्तत्फलविशेषस्य च ज्योतिःशास्त्रादेव सिद्धेः । न च प्रत्यक्षानुमानाभ्यामन्तरेणोपदेशं ज्योतिर्ज्ञानादिप्रतिपत्तिः । सर्वविदः प्रत्यक्षादेव तत्प्रतिपत्तिरनुमानविदां पुनरनुमानादपीति' चेन्न, सर्वविदामपि योगिप्रत्यक्षात्पूर्वमुपदेशाभावे' 'तदुत्पत्त्ययोगादनुमानाभाववत् । ते हि श्रुतमयीं चिन्तामयीं च भावनां प्रकर्षपर्यन्तं प्रापयन्तोतीन्द्रियप्रत्यक्षमात्मसात्कुर्वते, नान्यथा । तथानुमानविदामपि नात्यन्तपरोक्षेष्वर्थेषु परोपदेशमन्तरेण साध्याविनाभाविसाधन
[ कोई वैशेषिक और सौगत प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो से ही तत्त्वसिद्धि मानते हैं किन्तु आगम से
नहीं मानते हैं। जैनाचार्य इनका भी निराकरण करते हैं।। __ वैशेषिक-सौगत-प्रत्यक्ष और अनुमान से ही तत्त्वों की सिद्धि होती है आगम से नहीं होती है।
जैन-ऐसा कहने वाले आप लोग भी सत्यवादी नहीं हैं क्योंकि ग्रहों का संचार एवं चन्द्रग्रहण आदि तथा उनका फल विशेष भी ज्योतिष शास्त्र से ही सिद्ध होता है।
उपश-आगम के बिना केवल प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा ही ज्योतिष ज्ञानादि का बोध नहीं हो सकता है।
शंका-सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष से ही उन ज्योतिर्ज्ञानादि का बोध होता है एवं अनुमानवेत्ताओं को अनुमान से ज्ञान हो जाता है ।
___ समाधान-ऐसा नहीं करना चाहिये क्योंकि सर्वज्ञों को भी योगि प्रत्यक्ष से पूर्व-पहले उपदेश (आगम) के अभाव में उन ज्योतिर्ज्ञानादि का अभाव है जैसे कि स्वार्थानुमान के अभाव में योगि प्रत्यक्ष उत्पन्न नहीं होता है।
वे योगिजन श्रुतमयी-परार्थानुमानरूप एवं चितामयी-स्वार्थानुमानरूप या आगमरूप ही भावना को चरम सीमा पर्यंत प्राप्त होते हुये अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष को आत्मसात् करते हैं, अन्यथा नहीं करते हैं। उसी प्रकार से अनुमानवेत्ताओं को भी अत्यंत परोक्षरूप ग्रहोपरागादि पदार्थों के जानने
1 शास्त्रादेश्च । इति पा०दि.प्र.12 पूनः प्रमाणद्वयवाद्याह । प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां विना उपदेशज्योतिर्ज्ञानादिपरिज्ञानं न संभवति कथमित्युक्ते विवृणोति । सर्वज्ञस्य प्रत्यक्षप्रमाणादेवोपदेशज्योतिानादिपरिज्ञानमनुमानवादिनं छद्मस्थानामनुमानाद्विचारात्तत्परिज्ञानं घटते चेत् इति = आगममवलम्ब्य स्या० वदत्येवं न सर्वज्ञानामपि योगिप्रत्यक्षात् केवलज्ञानात्प्राजन्मान्तरादी गुरुपदेशाभावे सति तस्य योगिप्रत्यक्षस्योत्पत्तरसंभवात् यथानुमानवादिनां पूर्वमनभ्यासदशायां परोपदेशाभावेऽनुमानस्यासंभवो यतः । दि० प्र०। 3 स्वर्ग्रहणं भविष्यत्येवंविधफलकांकदर्शनात्संप्रतिपन्नफलकांकवत् । दि०प्र०। 4 तत्प्रतिपत्तिः । दि० प्र०। 5 अतीन्द्रियज्ञान । दि० प्र०। 6 परार्थानुमान । ब्या० प्र०।7 योगिप्रत्यक्षम् । ब्या०प्र० । 8 सर्वविदः । ब्या० प्र०।१ सन्तः । दि० प्र०।
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