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अष्टसहस्री
[ षष्ठ प० कारिका ७८ 'तु प्रमाणव्यपदेशभाक्, 'तत्कारणकार्यत्वात् । 'प्रमाणकारणकं हि तत्, 'तदतीन्द्रियार्थदर्शनोत्पत्तेस्तदर्थज्ञानोत्पादनाच्च प्रमाणकार्यकम् । नैतत् श्रुतेः संभवति, सर्वथाप्तानुक्तेः पिटकत्रयवत् । वक्तृदोषात्तादृशोऽप्रामाण्यं तदभावाच्छ तेः प्रामाण्यमिति चेत् 1"कुतोयं विभागः सिध्येत् ?
[ वेदस्यापौरुषेयत्वनिराकरणं ] पिटकत्रयादेः पौरुषेयत्वस्य स्वयं सौगतादिभिरभ्युपगमाद्वेदवादिभिश्च श्रुतेरपौरुषेअर्थात् वेद उपचार से भी प्रमाण नहीं हैं । इस कथन को हमने भावनादि श्रुति के विषय में अविसवादक को निराकरण के प्रकरण में पहले ही स्पष्ट कर दिया है।
"आप्त के वचन ही 'प्रमाण' इस व्यपदेश को प्राप्त होते हैं क्योंकि वे प्रमाण के कारण एवं कार्य हैं।" अर्थात् आप्त के वचन से प्रमाणभूत केवलज्ञान उत्पन्न होता है एवं प्रमाण से आप्त वचन उत्पन्न होते हैं इसलिये ये परस्पर में कार्यकारण रूप हैं। एतावता इनमें अन्योन्याश्रय दोष भी नहीं आता है क्योंकि बीज और वृक्षादि को परंपरा के समान इनकी परंपरा अनादि सिद्ध है। दे वचन प्रमाण कारणक हैं क्योंकि वे अतीन्द्रिय पदार्थ के प्रत्यक्ष दर्शन से उत्पन्न हुये हैं एवं अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न कराने वाले हैं अतः प्रमाण के कार्य भी हैं, किन्तु यह बात श्रुति में सभव नहीं है कारण वे बौद्धाभिमत पिट कत्रय के समान सर्वथा ही आप्त के द्वारा नहीं कहे गये हैं।
__ मीमांसक-वे पिटकत्रय वक्ता बुद्ध के दोष से अप्रामाणिक हैं, किन्तु वक्ता के दोष का अभाव होने से श्रुति-वेद प्रमाणिक हैं।
जैन-यदि आप ऐसा कहें कि तब तो यह प्रमाण-अप्रमाण का विभाग भी कैसे सिद्ध होता है ?
वेद के अपौरुषेयपने का निराकरण] मोसांसक-पिटकत्रय आदि ग्रंथों को तो बौद्धों ने स्वयं ही पौरुषेय माना है किन्तु वेदवादियों ने तो श्रुति को अपोरुषेय रूप स्वीकार किया है।
1 तु विशेषं आप्तवचनं प्रमाणं भवति। कस्मात्प्रमाणकारणत्वात् । प्रमाणकार्यत्वात् कथमित्युक्त वदति । तदाप्तवचनं प्रमाणस्य कारणं भवति । कस्मात्प्रमाणकारणभूत सामान्य ग्राहकलक्षणदर्शनोत्पादात् । तथाप्त. वचनं प्रमाणस्य कार्यं भवति । कस्मात । प्रमाण निमित्तभृतविशेषग्राहकलक्षणज्ञानजनकत्वात् । दि० प्र०। 2 प्रमाणम् । दि० प्र०। 3 सर्वज्ञज्ञानम् । दि० प्र० । 4 प्रमाणकारणं यस्येति वस: सर्वज्ञज्ञानकारणमाप्तवचनं कार्यमितिभावः । दि० प्र०। 5 ज्ञानातिशयवतोवचनातिशयदर्शनात् । व्या० प्र० । 6 प्रमाणकार्य । इति पा० शिष्यादिज्ञानलक्षणं कार्य यस्याप्तवचनस्य । दि० प्र०। 7 एतत्प्रमाणकारणकार्यत्वं वेदस्य न घटते । सर्वथाप्तप्रणीताभावात् । यथा सौगतमतसिद्धान्तानामपि पिटकत्रयस्य । दि० प्र०। 8 अयं वेदवादी आह वक्तपुरुषदोषात्तादृशः पिटकत्रयस्याप्रामाण्यं घटते पुरुषदोषाभावाद्वेदस्य प्रामाण्यं घटत इति चेत् स्या. आह अयं भेद: कुत: सिद्धःचेत् = वे वाद्याह सौगताद्यैः पिटकत्रयादिशास्त्रस्य पौरुषेयत्वमङ्गीक्रियते यतोऽस्माभिर्वेदस्यापौरुषेयत्वाङ्गीकरणत्वाच्च । दि० प्र० । 9 आप्तवचनस्य । ब्या०प्र०। 10 पिटकत्रये वक्तृदोषो न तु वेद इति । ब्या० प्र० ।
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