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हेतुवाद और आगमवाद के एकांत का खण्डन ] तुतीय भाग
एकांतरूप अपेक्षा - अनपेक्षा का खण्डन व स्याद्वाद सिद्धि का सारांश
बौद्ध का ऐसा कहना है कि धर्म और धर्मी परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा से ही सिद्ध होते हैं । जैसे कि मध्यमा, अनामिका अंगुली । अतः ये कल्पित हैं, वास्तविक नहीं । क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान में ये धर्म अथवा धर्मी प्रतिभासित नहीं होते हैं निर्विकल्प के अनंतर होने वाले विकल्प ज्ञान से ही कल्पित किये गये हैं । कारण निर्विकल्प तो स्वलक्षण को ही विषय करता है । अतः केवल अपेक्षा से ही विकल्प ज्ञान में सामान्य- विशेष, गुण-गुणी, कार्य-कारण आदि भाव झलकते हैं ।
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इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि इस तरह से विशेषण, विशेष्य आदि सभी को अपेक्षाकृत ही माना जायेगा तब तो दोनों की ही सिद्धि नहीं होगी । नील स्वलक्षण और नील ज्ञान यदि दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा से ही होंगे तो नील की अपेक्षा से रहित नील ज्ञान सिद्ध नहीं होगा । क्योंकि वह ज्ञान तो उस पदार्थ से ही उत्पन्न हुआ है और इन दोनों में से किसी एक का अभाव होने से बचे हुये दूसरे का भी अभाव हो जायेगा । एवं समान देश-काल स्वभाव वाले दो पदार्थों में परस्परापेक्षाकृत दूर और निकट व्यवहार नहीं है अन्यथा गधे के दो सींग में भी दूर-निकट आदि व्यवहार हो जाना चाहिये । अतः ये दूरासन्न आदि भाव स्वभावकृत हैं । अतः एकांत से आपेक्षिक सिद्धि नहीं होती है ।
योगका पूर्व पक्ष-धर्म और धर्मी सर्वथा अनापेक्षिक ही हैं क्योंकि ये दोनों प्रतिनियत वस्तु के विषय हैं । जैसे नील और नील का स्वरूप सर्वथा एक-दूसरे की अपेक्षा से रहित हैं ।
जैन - सर्वथा अनपेक्ष में भी अन्वय और व्यतिरेक सिद्ध नहीं हो सकता है । सामान्य को अन्वय एवं विशेष को व्यतिरेक कहते हैं । ये दोनों परस्पर आपेक्षिक ही हैं । भेद निरपेक्ष अभेद अन्वय बुद्धि का विषय नहीं है । एवं अभेद निरपेक्ष भेद भी व्यतिरेक बुद्धि के विषय नहीं हैं । अतएव कथंचित् आपेक्षिक ही वस्तुसिद्ध है । यदि कोई परस्पर निरपेक्ष दोनों को स्वीकार करे तो वह भी असंभव है । अवाच्य एकांत भी ठीक नहीं है । क्योंकि स्याद्वाद के अभाव दोनों बातें घटित नहीं होती हैं ।
अतः जैनाचार्य स्याद्वाद की सिद्धि करते हैं कि - "सामान्य और विशेष के समान धर्म और धर्मी का स्वरूप स्वतः सिद्ध है । किन्तु दोनों का अविनाभाव परस्पर की अपेक्षा ही सिद्ध होता है । जैसे कारक के अंग — कर्ता और कर्म स्वतः सिद्ध हैं । एवं ज्ञापक के अंग ज्ञेय और ज्ञान स्वतः सिद्ध हैं ।
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