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अष्टसहस्री
पं० प० कारिका ७५
दनापेक्षिकी पूर्वप्रसिद्ध स्वरूपत्वात् । ( ३ ) स्यादुभयी क्रमार्पितद्वयात् । ( ४ ) स्यादवक्तव्या, सहापितद्वयात् । (५) स्यादापेक्षिकी चावक्तव्या च तथा निश्चयेन सहापितद्वयात् । (६) स्यादनापेक्षिकी चावक्तव्या च पूर्वसिद्धत्वसहापितद्वयात् । (७) स्यादुभयी चावक्तव्या च, क्रमाक्रमार्पितोभयात् ।' इति सप्तभङ्गीप्रक्रियां योजयेन्नयविशेषवशादविरुद्धां पूर्ववत् ।
२. कथंचित् स्वरूप की अपेक्षा धर्म-धर्मी की सिद्धि अनापेक्षिक है क्योंकि इसका स्वरूप पूर्व से ही प्रसिद्ध है ।
३. कथंचित् उभय रूप से सिद्धि है क्योंकि अपेक्षा, अनपेक्षा रूप दोनों धर्मों की कर्म से विवक्षा की गई है।
४. कथंचित् अवक्तव्य है क्योंकि एक साथ दोनों की अपेक्षा है ।
५. कथंचित् आपेक्षिक और अवक्तव्य है क्योंकि धर्म-धर्मी क्रम के प्रकार से निश्चय से आपेक्षिक की अर्पणा है, और दोनों की युगपत् अर्पणा है ।
६. कथंचित् अनापेक्षिक और अवक्तव्य सिद्धि है, क्योंकि दोनों के स्वरूप पूर्व से प्रसिद्ध हैं एवं एक साथ दोनों की अर्पणा है ।
७. कथंचित् आपेक्षिकी, अनापेक्षिकी और अवक्तव्य है क्योंकि कर्म से दोनों की अर्पणा है और अक्रम से भी अर्पणा है, ऐसे दोनों ही विवक्षित हैं ।
इस प्रकार से नय विशेष के वश से पूर्व के समान अविरुद्ध सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित करना चाहिये ।
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