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________________ ३४६ ] अष्टसहस्री पं० प० कारिका ७५ दनापेक्षिकी पूर्वप्रसिद्ध स्वरूपत्वात् । ( ३ ) स्यादुभयी क्रमार्पितद्वयात् । ( ४ ) स्यादवक्तव्या, सहापितद्वयात् । (५) स्यादापेक्षिकी चावक्तव्या च तथा निश्चयेन सहापितद्वयात् । (६) स्यादनापेक्षिकी चावक्तव्या च पूर्वसिद्धत्वसहापितद्वयात् । (७) स्यादुभयी चावक्तव्या च, क्रमाक्रमार्पितोभयात् ।' इति सप्तभङ्गीप्रक्रियां योजयेन्नयविशेषवशादविरुद्धां पूर्ववत् । २. कथंचित् स्वरूप की अपेक्षा धर्म-धर्मी की सिद्धि अनापेक्षिक है क्योंकि इसका स्वरूप पूर्व से ही प्रसिद्ध है । ३. कथंचित् उभय रूप से सिद्धि है क्योंकि अपेक्षा, अनपेक्षा रूप दोनों धर्मों की कर्म से विवक्षा की गई है। ४. कथंचित् अवक्तव्य है क्योंकि एक साथ दोनों की अपेक्षा है । ५. कथंचित् आपेक्षिक और अवक्तव्य है क्योंकि धर्म-धर्मी क्रम के प्रकार से निश्चय से आपेक्षिक की अर्पणा है, और दोनों की युगपत् अर्पणा है । ६. कथंचित् अनापेक्षिक और अवक्तव्य सिद्धि है, क्योंकि दोनों के स्वरूप पूर्व से प्रसिद्ध हैं एवं एक साथ दोनों की अर्पणा है । ७. कथंचित् आपेक्षिकी, अनापेक्षिकी और अवक्तव्य है क्योंकि कर्म से दोनों की अर्पणा है और अक्रम से भी अर्पणा है, ऐसे दोनों ही विवक्षित हैं । इस प्रकार से नय विशेष के वश से पूर्व के समान अविरुद्ध सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित करना चाहिये । Jain Education International 22813 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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