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________________ हेतुवाद और आगमवाद के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३४५ वगम्यते । विशेषोपि स्वतः सिद्ध स्वरूपः सामान्यापेक्षव्यतिरेकप्रत्ययादवसीयते । न केवलं सामान्यविशेषयोः स्वलक्षणमपेक्षितपरस्पराविनाभावलक्षणं स्वतःसिद्धलक्षणमपि तु धर्ममिणोरपि गुणगुण्यादिरूपयोः', कर्त कर्मबोध्यबोधकवत् [कारकाङ्गकत कर्मवत् ज्ञापकाङ्गबोध्यबोधकवच्च] । न हि कर्तृ स्वरूपं कर्मापेक्षं कर्मस्वरूपं वा कत्रपेक्षम् , उभयासत्त्वप्रसङ्गात्' । नापि कर्तृत्वव्यवहारः कर्मत्वव्यवहारो वा परस्परानपेक्षः, कर्त त्वस्य कर्मनिश्चयावसेयत्वात्, कर्मत्वस्यापि कर्तृ प्रतिपत्तिसमधिगम्यमानत्वात् । एतेन बोध्यबोधकयोः प्रमेयप्रमाणयोः स्वरूपं स्वतःसिद्धं ज्ञाप्यज्ञापकव्यवहारस्तु परस्परापेक्षासिद्ध इत्यभिहितम् । तद्वत्सकलधर्मर्मिभूतानामर्थानां (१) स्यादापेक्षिकी सिद्धिः, तथा व्यवहारात् । (२) स्या केवल सामान्य-विशेष का स्वलक्षण, परस्परापेक्षित अविनाभाव लक्षण रूप नहीं है। किन्तु धर्म-धर्मी का स्वतः सिद्ध लक्षण (स्वरूप) भी, परस्परापेक्षित अविनाभाव लक्षण रूप नहीं है। अर्थात् जैसे सामान्य और विशेष का स्वलक्षण स्वतः सिद्ध है। क्योंकि स्वरूप परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है। वैसे ही धर्म और धर्मी का स्वरूप स्वतः सिद्ध है। वह एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है । गुण-गुणी आदि रूप धर्म-धर्मी का स्वरूप सिद्ध है । अर्थात् धर्म गुण कहलाते हैं और धर्मी गुणी कहलाता है। प्रत्येक गुण का स्वरूप स्वतः सिद्ध है और अनंत गुण सहित गुणी का स्वभाव भी स्वतः सिद्ध है । कर्ता-कर्म और बोध्य-बोधक के समान। जैसे कि कारक के अंग कर्ता और कर्म स्वतः सिद्ध हैं। एवं ज्ञापक के अंग बोध्य और बोधक ज्ञान स्वतः सिद्ध हैं। कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा रखे, अथवा कर्म का स्वरूप कर्ता की अपेक्षा रखे ऐसा नहीं है। अन्यथा-जब कर्त्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा रखेगा तब कर्ता के स्वरूप का अभाव हो जाने से एक-दूसरे के आश्रित होने से दोनों के ही अभाव का प्रसंग आ जायेगा। उसी प्रकार से कर्ता का व्यवहार अथवा कर्म का व्यवहार परस्पर में अनपेक्ष हो ऐसा भी नहीं है । क्योंकि जो कर्ता है, वह कर्म के निश्चयपूर्वक ही जाना जाता है । एवं कर्म भी कर्ता की प्रतिपत्ति पूर्वक ही जाना जाता है । इसी कथन से बोध्य, बोधक प्रमेय प्रमाण का स्वरूप स्वतः सिद्ध है, किन्तु ज्ञाप्य, ज्ञापक व्यवहार तो परम्पर की अपेक्षा से सिद्ध है । ऐसा कहा गया समझना चाहिये । उसी प्रकार से सकल धर्म-धर्मी पदार्थों में सप्तभंगी घटित कर लेना चाहिये । यथा१. कथंचित् आपेक्षिक धर्म-धर्मी आदि की सिद्धि है क्योंकि वैसा व्यवहार देखा जाता है। 1 बसः । ब्या० प्र०। 2 व्यवहारः । दि० प्र०। 3 भवतीत्यध्याहारः । दि० प्र०। 4 न केवलं सामान्यविशेषयोः स्वलक्षणमपेक्षितपरस्पराविनाभावलक्षणं स्वतः सिद्धलक्षणमपितु धर्मर्धामणोरपि तथा । ब्या० प्र०। 5 आदिशब्देन विशेष्यविशेषणसाध्यसाधनवाच्यवाचकग्रााग्राहकादिकं ज्ञेयम् । दि. प्र०। 6 अन्यथा । दि० प्र०17 सर्वथा सापेक्षे भवतश्चेत्तदोभयोः कर्तृकर्मणोरसत्त्वं प्रसजति । दि० प्र० । 8 भा । ब्या० प्र० । १ धर्ममित्वप्रकारेण । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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