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आपेक्षिक और अनापेक्षिक एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
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सिद्धिस्तयोर्न व्यवस्था । यथा परस्पराश्रययोः सरिति प्लवमानयोः । तथा च नीलतद्वेदनयोः सर्वथापेक्षाकृता सिद्धिः । इति तद्वयमपि न व्यवतिष्ठते । न हि नीलं नीलवेदनानपेक्षं सिध्यति', तस्यावेद्यत्वप्रसङ्गात् संविन्निष्ठत्वाच्च वस्तु यवस्थानस्य । नापि नीलानपेक्षं नीलवेदनं, तस्य तस्मादात्मलाभोपगमादन्यथा निविषयत्वापत्तेः । इत्यन्यतराभावे 'शेषस्याप्यभावाद्वयस्याव्यवस्थान स्यात् । एतेन नीलवासनातो नीलवेदनमित्यस्मिन्नपि दर्शने द्वयाव्यवस्थितिरुक्ता तयोरन्योन्यापेक्षकान्ते स्वभावतः 'प्रतिष्ठितस्यकतरस्याप्यभावेन्यतराभावादु
स्वलक्षण और नील संवेदन की सर्वथा अपेक्षाकृत सिद्धि है, इसलिये वे दोनों भी व्यवस्थित नहीं होते हैं।
नील ज्ञान से निरपेक्ष नील भी सिद्ध नहीं होता है। अन्यथा वह अवेद्य-अज्ञेय हो जायेगा। क्योंकि वस्तु की व्यवस्था ज्ञान से ही होती है । एवं नील की अपेक्षा से रहित नील ज्ञान भी नहीं है । क्योंकि वह नील ज्ञान उस पदार्थ से ही आत्म लाभ करता है। अर्थात् "नाकारणं विषयः" ऐसा आपने स्वीकार किया है । अन्यथा यह नील ज्ञान निविषयक हो जायेगा।
इस प्रकार से इन दोनों में से किसी एक का अभाव होने पर शेष बचे हुये दूसरे का भी अभाव हो जाता है । अत: दोनों की व्यवस्था नहीं बन सकती है।
इसी कथन से नील की वासना से नील ज्ञान उत्पन्न होता है। इस मत में भी दोनों की व्यवस्था नहीं बन सकती है ऐसा कह दिया गया है ।
उन दोनों का अन्योन्यापेक्ष एकांत स्वीकार करने पर स्वभाव से प्रतिष्ठित किसी एक-नील वासना अथवा नील रूप का अभाव हो जाने पर बचे हुये दूसरे का भी अभाव अवश्यंभावी है। पुनः नील ज्ञान और नील वासना इन दोनों को भी कल्पना नहीं हो सकेगी।
1 स्याद्वाद्यनुमानं रचयति । सौगताभिमत योर्नीलवत्संवेदनयोः पक्ष: व्यवस्था नास्तीति साध्यो धर्मः परस्परसापेक्षाकृतसिद्धत्वात् । ययोः सर्वथापरस्परापेक्षकृतासिद्धिस्तयोर्न व्यवस्था। यथा परस्पराश्रययो: नद्यां प्लवमानयोन्नौनाविकयोर्व्यवस्था न नीलनीलज्ञानयोः सर्वथापेक्षाकृता सिद्धिश्च तस्मात्तद्वयमपि न व्यवतिष्ठते । दि० प्र० । 2 पुरुषयोः । ब्या० प्र० । 3 प्लवमानयोर व्यवस्था च । ब्या० प्र०। 4 स्याद्वाद्याह नीलज्ञानानपेक्षं सत् नीलरूपं केवलं न घटते । घटते चेत्तदा तस्य नीलरूपस्याज्ञेयत्वमायाति तथा वस्तुव्यवस्थितिः संज्ञानेन सह संबद्धायतः=नील रूपमनपेक्षं सन्मीलज्ञानं लोके नास्ति कस्मात्तस्य नीलज्ञानस्य नीलरूपात् स्वरूपलाभाङ्गीकारं क्रियते यतोऽन्यथा नीलरूपाभावेपि सद्ज्ञानं जायते चेत्तदा तस्य नीलज्ञानस्य निविषयत्वमायाति =एवं द्वयोमध्य एकस्याभावे द्वितीयस्याप्यभावस्तद्वयोरन्योन्यमविनाभावित्वात् । एवं सति नीलनीलज्ञानस्य द्वयस्याव्यवस्थितिभंवेत । दि० प्र०। 5 अन्यथा । दि०प्र०। 6 नीलस्य तद्वेदनस्य वाभावे । दि० प्र०। 7 नीलस्य तद्वेदनस्य । ब्या० प्र०। विशेषस्यापि । इति पा० । ब्या० प्र०। 8 याव्यवस्थितिरुक्ता कथमिति दर्शयन्नाह । ब्या० प्र०।१ स्थितस्य । ब्या० प्र०।
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