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भेद एकांतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
प्रतिबद्ध' त्वादसंबद्धत्वं, तदुपचारनिमित्तं तु समवायिषु सत्सु तस्येदमिति प्रत्ययकारित्वमिति मतं तेषां प्रत्येकं परिसमाप्तेराश्रयाभावे सामान्यसमवाययोरसंभवादु त्पत्तिविपत्तिमत्सु कथं वृत्तिः ? 'क्वचिदेकत्र नित्यात्मन्याश्रये सर्वात्मना वृत्तं सामान्यं 'समवायश्च तावत् । ' उत्पित्सुप्रदेशे 'प्राग्नासीदनाश्रितत्वप्रसङ्गात् ', ' नान्यतो याति सर्वात्मना पूर्वाधारापरित्यागादन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, नाप्येकदेशेन, सांशत्वाभावात्, स्वयमेव पश्चाद्भवति "स्वप्रत्ययकारित्वात्, आश्रयविनाशे च न नश्यति नित्यत्वात्, प्रत्येकं परिसमाप्तं च' इति व्याहतमेतत् । स्यान्
जैन - यह आपका ऐसा मत है तब तो आपके यहां प्रत्येक नित्य द्रव्यों में समवाय और सामान्य की परिसमाप्ति हो जाने से आश्रय का अभाव हो जायेगा । पुनः सामान्य और समवाय ही असंभव हो जायेंगे तब उत्पाद विनाशमान् - अनित्य कार्यों में वे कैसे रहेंगे ? क्योंकि आपके यहां किसी एक नित्यात्मा रूप आश्रय में ये सामान्य और समवाय सर्वदेश से परिसमाप्त हैं-रहते हैं । यदि आप ऐसा कहें कि -
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उत्पन्न होते हुये घटादि प्रदेश में ये पहले नहीं थे । अन्यथा अनाश्रित मानना पड़ेगा । अन्य कहीं से नहीं आते हैं क्योंकि सर्व देश से नित्य द्रव्य रूप पूर्व के आधार को नहीं छोड़ते हैं अन्यथा उनका अभाव हो जायेगा । एक देश से भी नहीं रहते हैं क्योंकि ये सामान्य और समवाय अंश सहित नहीं हैं । स्वमेव पश्चात् उत्पत्ति के अनन्तर उत्पन्न होने योग्य प्रदेश में होते हैं। क्योंकि नित्य द्रव्य होने से आत्मा आकाश आदि में स्वप्रत्ययी कराने वाले हैं और आश्रय का विनाश होने पर नष्ट नहीं होते हैं । क्योंकि नित्य हैं और प्रत्येक आश्रय में परिसमाप्त हैं । इस प्रकार से आपके पूर्वोक्त वचन परस्पर विरुद्ध होने से व्याहृत हैं । नष्ट हो गये हैं ।
अर्थात् - "नयाति न च तत्रास्ते न पश्चादास्तिनाशवत् । जहातिपूर्वंनाधार महो व्यसन संततिः ।"
1 उपचारादाश्रितत्वं यतः । दि० प्र० । 2 तथा । इति पा० । दि० प्र० । 3 ततश्च । ब्या० प्र० । 4 स्या वदति हे वै० सामान्यं तावत्कस्मिन् नित्यस्वरूप आधारे सर्वथा समाप्तं जातं तथैव समवायश्च = उत्पत्तुमच्छ्रिनामर्थानां प्रदेशे पूर्व सामान्यं समवायश्च माभूत् । कुत आश्रयभूतपदार्थाभावात् तथान्वितः स्वाश्रये प्रवर्तमानः समवायः सामान्यञ्च पूर्वाधारं परित्यज्यान्यत्र न याति न गच्छति । अन्यथा याति चेत्तदा तस्य पूर्वाधारस्याभावः समायाति सर्वदेशेन याति तहि एकदेशेन याति किमित्युक्ते वदति । एकदेशेनापि पूर्वाधारं त्यक्त्वाऽन्यत्र न याति । कुतः सामान्यस्य समवायस्य च निरंशत्वात् = सर्वात्मना न याति एकदेशेन न याति किन्तु पश्चात् स्वयमेवोत्पद्यते । कुतः । आत्मो ज्ञानविधायित्वात् = तथा सामान्यं समवायश्चात्माधारविनाशेपि स्वयं न विनश्यति कुतो नित्यत्वात् तथा एकैकमाश्रयं प्रति समाप्तञ्चेति वैशेषिकस्येतत्सर्वं विरुद्धमेव । दि० प्र० । 5 अर्थवाद्विभक्तिपरिणामस्तेन सर्वात्मना वृत्तम् । व्या० प्र० । 6 उत्पत्तेः । दि० प्र० । 7 सामान्यसमवाययोः । व्या० प्र० । 8 नित्यद्रव्यमात्माकाशादेः । ना प्र० । 9 साकल्येन कार्यं प्रति न याति । व्या० प्र० । 10 उभय । ब्या० प्र० ।
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