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उभय और अवाच्य के एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३१५ 'तदेवमवयवावयव्यादीनामन्यत्वाद्येकान्तं निराकृत्याधुना तदने कान्तं सामर्थ्यसिद्धमपि दुराशङ्कापनो दार्थं दृढतरं निश्चिीषवः सूरयः प्राहुः ।
द्रव्य पर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। परिणाम विशेषाच्च शक्तिमच्छ' 'क्तिभावतः ॥७१॥ 1"संज्ञासंख्या विशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥७२॥
उत्थानिका-इस प्रकार से अवयव, अवयवी आदि के भिन्न, अभिन्न आदि एकांत का निराकरण करके इस समय तत्त्वोपल्लववादी को दुराशंका को दूर करने के लिए और सामर्थ्य से सिद्ध भी अनेकांत को दृढ़तर निश्चित करने की इच्छा रखते हुए आचार्यवर्य श्रीसमंत भद्र स्वामी कहते हैं।
द्रव्य और पर्याय कथंचित् एकरूप हैं अभेद ही। क्योंकि उभय है अभिन्न उनका पृथक्करण है शक्य नहीं। द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न कहे सर्वथा नहीं। चूंकि भिन्न परिणमन भेद से शक्तिमान् अरु शक्ति से भी ।।७१॥ नाम भेद से, संख्या से भी द्रव्य और पर्याय पृथक् । निज-निज लक्षण भेद उभय में इसीलिए हैं पृथक्-पृथक् ।। दोनों का है भिन्न प्रयोजन अरु प्रतिभास भेद भी है ।
इसी अपेक्षा द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न रहें ।।७२।। कारिकार्थ-द्रव्य और पर्याय में एकत्व है; क्योंकि वे दोनों सर्वथा भिन्न नहीं हैं तथा परिणाम विशेष से शक्तिमान्, शक्ति भाव से, संज्ञा, संख्या की विशेषता से, अपने-अपने लक्षणों को भिन्नता से एवं प्रयोजनादि के भेद से वे दोनों नाना-भिन्न-भिन्न भी हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं। ।।७१॥ ॥७२॥
1 तत्त्वोपप्लवः । दि० प्र० । 2 तस्मात् । दि० प्र० । 3 भा। व्या० प्र० । 4 निश्चिकीर्षवः । इति पा० । निश्चय कर्तमिच्छवः । दि० प्र०। 5 गूणसामान्योपादानकारणानां द्रव्यशब्दात् ग्रहणम् । दि० प्र०। 6 गुणव्यक्तिकार्यद्रव्याणां पर्यायशब्दात् ग्रहणम् । दि० प्र० । 7 कथञ्चित् । दि० प्र० । 8 स्वरूपभेदात् । दि० प्र० । 9 भेदात् । दि० प्र० । 10 अयं शक्तिमान् इयं शक्ति । दि० प्र०। 11 इदं द्रव्यमयं पर्याय इति नाम संज्ञा । दि० प्र०। 12 एकं द्रव्यम् अनेकपर्यायः । दि० प्र०। 13 भेदात् । दि० प्र०। 14 एकान्ते न । दि० प्र०।
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