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अष्टसहस्री
च०प० कारिका ७०
स्याद्वाद को स्वीकार करने पर तो हमारे यहाँ दोष नहीं है। क्योंकि कथंचित्-नय की अपेक्षा से तथाभाव-अवक्तव्यभाव की उपलब्धि पायी जाती है ।
"सभी वस्तुएँ स्थूल-व्यंजन पर्याय रूप से वाच्य हैं तथा अर्थ पर्याय रूप से अवाच्य हैं । इस प्रकार से स्वाद्वादियों के द्वारा व्यवस्था की जाती है अन्यथा एकांत से वाच्यता या अवाच्यता रूप को सिद्ध करने में प्रमाण का अभाव है।
योग के उभयकांत एवं बौद्ध के अवाच्यत्व का खंडन
यौग ने परस्पर निरपेक्ष भिन्नाभिन्न रूप एकांत स्वीकार किया है। वह भी अवयव, अवयवी, गुण, गुणी, सामान्य, सामान्यवान् में भिन्न और अभिन्न रूप एकांत युगपत् संभव नहीं है; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है ।
बौद्धाभिमत अवाच्यतैकांत भी उचित नहीं है। यदि बौद्ध कहें कि वस्तु में वाच्यता है ही नहीं; अतः वस्तु अवाच्य है । तब उनसे हम ऐसा प्रश्न करते हैं कि वह अनुपलब्धि हेतु अदृश्यानुपलब्धि रूप है या दृश्यानुपलब्धि रूप ? यदि दृश्यानुपलब्धि मानों तो जिस देश में दृश्य देखने योग्य पदार्थ हैं, वहाँ वाच्यता है ही । यदि दूसरा पक्ष लेवो तब तो जो पदार्थ अदृश्य-देखने योग्य ही नहीं है उसकी अनुपलब्धि-अभाव भी आप कैसे कर सकेंगे ?
___ अतएव स्याद्वाद के बल से सभी वस्तुएँ व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा से वाच्य हैं एवं अर्थ पर्याय की अपेक्षा से अवाच्य हैं, किन्तु एकांत रूप अवाच्य तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है।
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