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अभेद एकांतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ ३०७
परमाणु के अभिन्नकांत खंडन का सारांश
किन्हीं का कहना है कि परमाणु सर्वदा नित्य ही हैं, संयोग एवं वियोग किसी भी अवस्था में अन्य स्वरूप न होकर एक-अनन्य स्वरूप ही रहते हैं। उनमें स्वरूपांतर परिणमन नहीं है।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि जब वे परमाणु स्कंध रूप अवस्था में आते हैं तब वे यदि घट, पट आदि की तरह भिन्न-भिन्न ही रहेंगे पुनः ऐसी स्थिति में तो जो पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय भूत-चतुष्क स्कंध रूप ही हैं ये भ्रांत हो जायेंगे।
यदि आप परमाणुओं को अनन्यतैकांत रूप मानकर इन भूत चतुष्क को भ्रांति रूप मानोगे तब कार्य स्कंध के भ्रांत हो जाने से कारण रूप परमाणु भी भ्रांत हो जायेंगे तथा कार्य, कारण दोनों के ही भ्रांत रूप हो जाने से गुण, जाति, सत्त्व, क्रिया आदि का भी अभाव हो जायेगा। अतः इस बात को ही स्वीकार करना चाहिये कि परमाणु अपने परमाणु रूप स्वभाव का परित्याग करके ही स्कंध बनते हैं और तभी उस स्कंध के आश्रित गुण, जाति, सत्त्व आदि बन सकते हैं। कार्य की उत्पत्ति में वे परामाणु कथंचित् अन्य रूप परिणमन करते हैं इसलिये परमाणुओं का अनन्यतै कांत (नित्यकांत) श्रेयस्कर नहीं है।
सार का सार- यदि प्रत्येक परमाणु संघात अवस्था में भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं, अन्य रूप परिणत नहीं होते हैं। तब तो स्कंध की व्यवस्था समाप्त हो जावेगी। अतः परमाणु अपने स्वभाव का त्याग करके स्कंध रूप परिणत होते हैं यह मानना उचित है।
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