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अष्टसहस्री
[ च० प० कारिका ६६ चैतन्यानुप्रवेशे पुरुषमात्रस्य, तस्य 'वा चैतन्यानुप्रवेशे चैतन्यमात्रस्य प्रसक्तेः सिद्धस्तावत्तदन्यतरस्याभावः परेषाम् । ततः शेषाभावस्तत्स्वभावाविनाभावित्वाद्बन्ध्यासुतरूपसंस्थानवत् । यथैव हि बन्ध्यासुतरूपस्याभावे न तस्य संस्थानं संस्थानिस्वभावा विनाभावित्वात् । तथा पुरुषस्याश्रयस्याभावे 'चैतन्यस्याश्रयिणोप्यभावस्तदभावे पुरुषस्याप्यभावः, तत्स्वभावाविनाभावात् । तथा सति द्वित्वसंख्यापि न स्यात्, पुरुषचैतन्ययोरेकत्वमिति । तत्र संवृतिकल्पना शून्यत्वं नातिवर्तते, परमार्थविपर्ययाद्वयलीकवचनार्थवत्, परमार्थतः संख्यापाये संख्येया व्यवस्थानात् सकलधर्मशून्यस्य कस्यचिद्वस्तुनोऽसंभवात् । "तन्न कार्यकारणादीनामनन्यतैकान्त:12 संभवत्यन्यतैकान्तवत् ।
पुरुष में चैतन्य का अनुप्रवेश हो जाने पर पुरुष मात्र ही रह जायेगा, अथवा पुरुष का चैतन्य में अनुप्रवेश हो जाने पर चैतन्य मात्र ही रह जायेगा। तब तो आप सांख्यों के यहां दो में से किसी एक का अभाव सिद्ध ही हो जायेगा; तथा दो में से एक का अभाव हो जाने पर बचे शेष का भी अभाव हो जायेगा; क्योंकि पुरुष के साथ चैतन्य स्वभाव का अविनाभाव है। जैसे कि बंध्या के पुत्र का रूप और उसका संस्थान ।
जिस प्रकार से बंध्या सुत के रूप का अभाव हो जाने पर उसका संस्थान सिद्ध नहीं होगा; क्योंकि संस्थानी बंध्या-सुत के रूप के स्वभाव से उसके संस्थान का अविनाभाव है। उसी प्रकार से पुरुष रूप आश्रय के अभाव में चैतन्य रूप आश्रयी का भी अभाव हो जायेगा और उसी आश्रयी के अभाव में पुरुष का भी अभाव हो जायेगा; क्योंकि उस पुरुष और चैतन्य में परस्पर में स्वभाव का अविनाभाव है।
उस प्रकार से मानने पर द्वित्व संख्या भी नहीं हो सकेगी; क्योंकि आपने पुरुष और चैतन्य में सर्वथा एकत्व मान लिया है। द्वित्व की संख्या में संवृत्ति को कल्पना शून्यपने का उल्लंघन नहीं कर सकती है। क्योंकि वह संवृत्ति परमार्थ से विपरीत है-झूठे वचनों के झूठे अर्थ के समान ।
परमार्थ से संख्या के अभाव में संख्येय-संख्या रूप होने योग्य वस्तु की व्यवस्था भी नहीं हो सकती है। क्योंकि वे संख्येयत्वादि धर्म, सकल धर्म से शून्य किसी वस्तु में नहीं पाये जा सकते। इसलिए कार्य कारणादिकों में सांख्याभिमत अभिन्नैकांत संभव नहीं है; जैसे कि योगाभिमत भिन्नतकांत संभव नहीं है।
1 पुरुषस्य । दि० प्र०। 2 अवस्थानात् । दि० प्र०। 3 वन्ध्यासुतस्य । दि० प्र०। 4 संस्थानस्य । ब्या० प्र० । 5 लक्षणम् । ब्या० प्र०। 6 चैतन्यम् । व्या० प्र० । 7 किञ्च । ब्या० प्र०। 8 नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्ति धावध्वं माणवका इत्यादिवत् । दि० प्र०। 9 पदार्थ । दि० प्र०। 10 अघटनात् । दि० प्र०। 11 तस्मात्कारणात । दि० प्र०। 12 सांख्योक्त । दि० प्र०। 13 यथा सौगतस्य भेदः । दि० प्र० ।
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