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अभद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ३०६ प्रसज्यते । यदि पुनः कार्यस्य कारणेनुप्रवेशात्पृथगभावेपि' कारणमेकमास्ते एव नित्यत्वादिति मतं तदा द्वित्वसंख्याविरोधोपि, सर्वथैकत्वे तदसंभवात् कार्यकारणभावादिवत् । संवृतिरेव द्वित्वसंख्या' तत्रेति चेत्तहि मृषैव सा तद्वदेव प्रसक्ता। तथा च कुतः प्रधानस्याधिगतिः ? न तावत्प्रत्यक्षात्, 10तस्य तदविषयत्वात् । नाप्यनुमानात्, अभ्रान्तस्य लिङ्ग1स्याभावात् । न चागमात्, 13शब्दस्यापि भ्रान्तत्वोपगमात् । न च भ्रान्ताल्लिङ्गादेर भ्रान्तसाध्य सिद्धिरतिप्रसङ्गात् । एवं पुरुषचैतन्ययोराश्रयायिणोरेकत्वे तदन्यतराभावः । पुरुषे अभाव हो जायेगा, पुनः उस एक से अविनाभावी दूसरे शेष का भी अभाव हो जायेगा। इस प्रकार से तो सभी का अभाव हो जायेगा।
सांख्य–महान् आदिकार्य प्रधान रूप कारण में अनुप्रवेश कर जाते हैं; अतः पृथक् भेद का अभाव होने पर भी कारण एक ही है; क्योंकि वह नित्य है।
जैन-यदि आपका ऐसा मत है तब तो द्वित्व संख्या का भी विरोध हो जायेगा; क्योंकि कार्य कारण में सर्वथा एकत्व के मानने पर वह द्वित्व संख्या असंभव ही है ; जैसे-सर्वथा एक वस्तु में कार्य कारण भाव आदि असंभव है। यदि ऐसा कहो कि वहाँ द्वित्व संख्या संवृत्ति रूप ही है। तब तो वह संवृत्ति तो उसी प्रकार असत्य ही हो जाती है और पुनः द्वित्व संख्या को असत्य मानने पर प्रधान का ज्ञान भी कैसे होगा?
प्रत्यक्ष प्रमाण से तो हो नहीं सकता; क्योंकि वह प्रत्यक्ष ज्ञान प्रधान को विषय नहीं करता है, अनुमान से भी उसका ज्ञान नहीं हो सकता है; क्योंकि भ्रांति सहित लिंग का अभाव है। आगम से भी वह प्रधान नहीं जाना जाता; क्योंकि शब्द को भी आपने भ्रांत रूप स्वीकार किया है एवं भ्रांत स्वरूप हेतु आगम और प्रत्यक्ष आदि से अभ्रांत रूप साध्य की सिद्धि भी नहीं हो सकती है। अन्यथा अति प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् गोपाल घटिका के धूम से अग्नि के ज्ञान का प्रसंग आ जायेगा।
एवं कार्य कारण प्रकार से पूरुष और चैतन्य रूप "आश्रय और आश्रयो में सर्वथा एकत्व के मानने पर दोनों में से किसी एक का अभाव हो जायेगा।"
1 प्रागभावेपि । इति पा० । ब्या० प्र०। 2 स्याद्वादी। दि० प्र०। 3 कल्पना। दि० प्र०। 4 सर्वथैकत्वे । दि० प्र०। 5 एकस्मिन् कारणे । दि० प्र०। 6 कार्यकारणभावादिवत् । दि० प्र०। 7 कार्यकारणादीनामेकत्वाङ्गीकारे द्वित्वसंख्यायाः संवृत्ती सत्या सांख्यानां प्रधानं परमाणुरूपं कारणं कुतः प्रमाणात् सिद्धं स्याद्वादी वदति हे सांख्य इति मम धीर्वर्तते पूनः स्याद्वादी स्वयमेव खण्डयति प्रधानं न तावत्प्रत्यक्षादित्यादि । दि० प्र० । 8 प्रधानं स्यादितिमतिः । इति पा० । दि० प्र०। 9 प्रधानं तदेवेदमिति सांख्यस्य मतिस्तावत्प्रत्यक्षान्न । दि० प्र० । प्रधानं महदादीनि द्वित्वस्याभावादित्येतत्कुतो द्वित्वसंख्याया मषात्वात् । ब्या०प्र० । 10 प्रत्यक्षस्य । दि० प्र० । 11 महदादेः । ब्या०प्र०। 12 महदादेन्तित्वोपगमात् । ब्या० प्र०।13 कार्यात्मकस्य । दि० प्र० । 14 शब्दस्य महदाद्यन्त:पातित्वात् । ब्या० प्र० । 15 आगम । ब्या० प्र० । 16 प्रधान । दि०प्र० ।
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