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अष्टसहस्री
[ च० प० कारिका ६७ अपरः प्राह, मा भूत्कार्यकारणादीनामन्यतैकान्तः परमाणूनां तु नित्यत्वातु सर्वास्ववस्था' स्वन्यत्वाभावाद' नन्यतैकान्त' इति तं प्रति संप्रत्यभिधीयते ।
अनन्यतैकान्तेणूनां' 'संघातेपि "विभागवत् ।
असंहतत्वं स्याद्भूत'चतुष्कं भ्रान्तिरेव सा ॥६७॥ उत्थानिका-कोई कहता है कि कार्य कारणादिकों में परस्पर भिन्नता रूप एकांत मत होवे, कोई बाधा नहीं है किन्तु परमाणु तो नित्य हैं, उनकी सम्पूर्ण संयोग-वियोग अवस्थाओं में भिन्नत्व का अभाव है । इसलिये उनमें एकांत से अभिन्नपना ही है। ऐसा कहने वाला जो सौगत है उसके प्रति इस समय श्री संमतभद्र स्वामी अगली कारिका द्वारा कहते हैं
यदि परमाणू सदा नित्य हैं अन्य रूप परिणमें नहीं। तब स्कंध रूप में भी वे भिन्न-भिन्न ही रहें सही ॥ पुनः भूमि, जल, वायु, अग्नि इन भूत चतुष्टय का स्कंध ।
भ्रांत रूप ही हो जावेगा क्योंकि अणू सब पृथक-पृथक् ॥६७।। कारिकार्थ-परमाणुओं में अभिन्न रूप एकांत पक्ष के मानने पर उनकी संघात-स्कंध अवस्था में भी विभाग-विभक्त पदार्थों की तरह उनको पृथक-पृथक परस्पर असम्बन्धित ही मानना पड़ेगा, पुनः ऐसी स्थिति में आपके द्वारा स्वीकृत भूतचतुष्क भ्रांति रूप ही हो जायेगा, अर्थात् पार्थिव, जलीय, तैजस एवं वायवीय परमाणुओं के संघात रूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, भूतचतुष्क हैं । ये भ्रांत हो जायेंगे। ॥६७।।
भावार्थ-यहाँ 'अपरः प्राह' इस पर मुद्रित अष्टसहस्री एवं हस्तलिखित दिल्ली प्रति अष्टसहस्री दोनों में ही टिप्पणी में "सौगतः" दिया है। आगे मुद्रित में "माभूत कार्यकारणादीनामन्यतैकांतः परमाणूनां नित्यत्वात्" तथा दिल्ली प्रति अष्टसहस्री में 'अन्यतकांत:" "अनन्यतैकांतः" पाठ है । उसकी टिप्पणी में दिया है। "दृष्टांतत्वेनोक्तः” ऐसा दिया है। दृष्टांत रूप से कहा है। आगे "परमाणनां" पर टिप्पणी उसमें दिया है कि यहाँ अभेदैकांतवादी कोई योग का भेद है वह कहता है कि कार्य-कारण आदि में अभेदैकांत मत होवें। किन्तु परमाणुओं में सर्व अपरिणमन
1 दृष्टान्तत्वेनोक्तः । ब्या० प्र०। 2 अत्राभेदकान्तवादी कश्चिद्योगभेदः प्राह कार्यकारणादीनामभेदैकान्तो माभूत् । परमाणूनामभेदैकान्तः सर्वथापरिणमनस्वभावोस्तु । कुतो नित्यत्वात्परमाणूनां कुतो नित्यत्वं द्वयणुकादिसर्वावस्थासु एकत्वाभावात् ==परमाणूनामभेदैकान्ताभ्युपगमे सति यथा विभागे तथा संघातेप्यमिलनत्वं स्यात् । एवं सति को दोषः सा पृथ्वीअप्तेजोवायुव्यवस्थितिभ्रान्ताः । दि० प्र०। 3 संयुक्तवियुक्तावस्थासु । दि० प्र०। 4 स्वरूपान्तरत्व । दि० प्र० । 5 परमागूनां युक्तवियुक्तावस्थास्वेक स्वरूपत्वैकान्त इत्यभिप्रायः । दि० प्र०। 6 बौद्धप्रति । दि० प्र०। 7 परमाणूनाम् । दि० प्र० । 8 नित्यानाम् । दि० प्र० । 9 अमिलितस्वरूपत्वम् । दि० प्र०। 10 यथा परमाणूनां विभागे सति असंमिलितत्वं तथा संघातकाले पि । दि० प्र०। 11 ततश्च । दि० प्र० ।
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