________________
अभेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ २६६ तथा आपने समवाय से कार्य-कारण आदि में सम्बन्ध माना है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि वह समवाय अपने समवायियों में भिन्न समवाय से रहता है । या स्वतः ?
यदि भिन्न समवाय से मानों तब तो अनवस्था दोष आता है । यदि स्वतः मानों तब तो द्रव्यादिकों को भी स्वतः ही वैसा मानों, समवाय से क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार से जैनियों के द्वारा अनेक दूषण आरोपित करने से यदि आप कहें कि सत्ता सामान्य बिना आश्रय के नहीं रहता है तथैव समवाय भी बिना आश्रय के नहीं रहता है। और अपने आश्रयभूत नित्य पदार्थों में ये दोनों पूर्णरूप से रहते हैं तब तो अनित्य पदार्थों में इनका अस्तित्व कैसे होगा? तथा सर्वगत सामान्य और एक रूप समवाय अपने आश्रय रूप द्रव्य, गुण, कर्म में प्रत्येक में परिसमाप्त हो जाने से असम्भव ही हो जायेंगे । अन्यथा वे दोनों बहुत ही हो जायेंगे। जैसे कि उनके आश्रयभूत पदार्थ बहुत हैं । इत्यादि । “तथा सबसे बड़ा दोष तो यह आता है कि आपके यहाँ सामान्य और समवाय का परस्पर में समवाय सम्बन्ध या संयोग सम्बध है नहीं, अतः ये दोनों पृथक्-पृथक् ही रहे, पुनः इन दोनों से पदार्थ भी सम्बन्धित नहीं है, अतः सामान्य समवाय और पदार्थ तीनों ही खपुष्पवत् असत् हो जाते हैं । क्योंकि समवाय सामान्य एवं पदार्थ तो आपके यहाँ सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं। अतः आपका भिन्नकांत श्रेयस्कर नहीं है।
सार का सार-योग कार्य-कारण, अवयव-अवयवी, गुण-गुणी आदि में सर्वथा भेद मानता है, वास्तव में ये कथंचित् भिन्न हैं, सर्वथा नहीं, क्योंकि कारण के बिना कार्य, गुणी के बिना गुण, अवयवी के बिना अवयव कहाँ पाये जायेंगे। अतः इन सभी में कथंचित् अभिन्नता मान लेना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org