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अष्टसहस्री
[ च०प० कारिका ६५
सत्तासमवाय उत्पाद इति वचनात्, केवलस्य समवायस्य सत्तासामान्यवन्नित्यत्वा'दुत्पाद इति ज्ञानाभिधानाहेतुत्वादिति मतं तदा,
सामान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । "अन्तरेणाश्रयं न स्यानाशोत्पादिषु को विधिः॥६५॥
[ योगाभिमतसामान्यसमवाययोनिराकरणम् ] येषां 'परमार्थतः सामान्य स्याश्रितत्वमुपचारात्समवायस्य समवायिषु तत्रा13.
समान नित्य रूप होने से "उत्पाद" है। इस प्रकार से ज्ञान और शब्द का अहेतुक है। इस प्रकार से यदि आप योग का मत है तब तो
आश्रय बिन सामान्य और समवाय नहीं रहते प्रत्येक । एक-एक द्रव्यादि नित्य में समाप्त होते ये इक-एक ॥ पुनः नष्ट उत्पन्न अनित्यों कार्यों में कैसे होंगे।
चूंकि नित्य ये दोनों उन वस्तू में कैसे ठहरेंगे ।। ६५ ।। कारिकार्थ-जिस प्रकार से सामान्य सत्ता बिना आश्रय के नहीं रह सकता है, तथैव समवाय भी बिना आश्रय के नहीं रह सकता है। और अपने आश्रयभूत प्रत्येक नित्य व्यक्तियों-पदार्थों में ये दोनों पूर्ण रूप से रहते हैं। इसलिये नाशोत्पादादि-अनित्य पदार्थों में इनका विधान कैसे होगा अर्थात् इनका अस्तित्व वहाँ कैसे सिद्ध होगा ? ॥६५।।
[ योगाभिमत सामान्य और समवाय का निराकरण । ] वैशेषिक-सामान्य परमार्थ से आश्रित होता है, समवाय उपचार से आश्रित है क्योंकि वह समवाय समवायियों से अप्रतिबद्ध होने से असंबद्ध है। उसमें उपचार निमित्त यह है कि समवायियों के होने पर वह समवाय इसमें यह है इस प्रकार के ज्ञान को कराता है।
1 समवाय उत्पाद इति । इति पा० । दि० प्र०। 2 कार्यप्रागसत्त्वरहितस्य । दि० प्र०। 3 सत्ता । दि० प्र० । 4 सत्तासामान्यं यथा नित्यं केवल: समवायोपि नित्य एव । दि० प्र०। 5 स्थितत्वात् । दि० प्र०। 6 विना । दि. प्र०। 7 नित्यव्यक्तिरूपम् । दि० प्र०। 8 सामान्यसमवाययोः । ब्या० प्र०। 9 अत्राह वैशेषिक: येषां वैशेषिकाणामनेकासु व्यक्तिषु यत्सामान्यस्यान्वितत्वं दृश्यते तत्सर्वथोपचारात् । ननु साक्षात् तथा स्वसमवायकृतेष्वर्थेषु समवायस्योपचारात् संबद्धत्वात् सम्बन्धत्वञ्च । आह स्या० उपचारनिमित्तं किमित्युत्युक्त आह विद्यमानेष समवायिषु समवायस्य इहेदमिति प्रत्ययकारित्वं यत्तदुपचारनिमित्तमिति मतं वैशेषिकाणाम् । दि० प्र०। 10 सामान्यस्यान्वितत्वमुपचारात् । इति पा० । दि० प्र०। 11 आश्रितवत्वमुपचारात् सामान्यस्य समवायेन संबन्धत्वात्परमार्थत आश्रितत्वं समवायस्य समवायान्तरेण संबद्धत्वाभावादुपचाराश्रितत्वमिष्यते वैशेषिकरिति प्रतिपत्तव्यम् । दि० प्र० । 12 कार्यकारणादिषु । दि० प्र०। 13 तथाप्रतिबद्धत्वात् । इति पा० । दि० प्र० ।
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