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भेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ २८६ समयेप्यभावान्तरेपि चात्यन्तसत्त्वसिद्धेः 'कुतः प्रागभावादिभेदस्य व्यवस्था स्यात् ? प्रत्ययविशेषात्तघ्द्यवस्थायां सत्तासमवायस्य भेदव्यवस्थास्तु तत एव । न हि प्रध्वंसात्प्राक्कार्यस्य सत्तासमवायः प्रागभावात् पश्चादितरस्मादितरत्रेत्यादिप्रत्ययविशेषोऽसिद्धः परीक्षक्काणां', यत सत्तासमवाययोरनेकत्वं न स्यात् । यदि पुनः प्राक्कालादिविशेषणान्येव भिद्यन्ते समवायिनश्च', न पुनः सत्ता समवायश्चेति मतं तदा कथमभावोपि भिद्येत ? तद्विशेषणानामेव भेदात् ।
परीक्षकों को असिद्ध नहीं है कि जिससे सत्ता और समवाय में अनेकत्व भेद न हो सके। अर्थात् दोनों भिन्न-भिन्न ही हैं।
योग-पहले कालादि विशेषण ही भेद को प्राप्त होते हैं और समवायी भेद को प्राप्त होते हैं किन्तु सत्ता और समवाय भिन्न भेद को प्राप्त नहीं होते हैं।
जैन-यदि आपका ऐसा मत है तो आपके यहां अभाव भी कैसे भेद को प्राप्त होता है ? क्योंकि अभाव के प्राक् पश्चात् इत्यादि विशेषणों में ही भेद है। यदि आप कहें कि विरुद्ध धर्माध्यास से अभाव में भेद है तब तो सत्ता और समवाय में भी उसी विरुद्ध धर्माध्यास से ही भेद को मान लेना चाहिये इसलिये असत्ता-अभाव के समान सत्ता भी विश्वरूप हो जावे, उसी प्रकार से समवाय भी विश्वरूप हो जावे, क्या बाधा है ?
इस प्रकार सत्ता में एकत्व का विरोध भी संभव नहीं है। विशेषरूप से अनेकत्व-भेद के होने पर भी सामान्य की अर्पणा-विवक्षा से द्रव्य, गुण, कर्मादि में एकत्व का विरोध नहीं है। क्योंकि असत् विशेषों में-अभाव के भेदों में अभाव सामान्य की प्रतीति के समान सत् विशेष-सत्त्व के भेदों में ही सत् सामान्य की प्रतीति हो रही है तथैव समवाय विशेषों में समवाय सामान्य की प्रतीति भी विरुद्ध नहीं है। जैसे कि संयोग विशेषों में संयोग सामान्य की प्रतीति देखी जाती है। इस प्रकार से हम स्याद्वादियों के यहां सभी वस्तुयें सामान्य विशेषात्मक सिद्ध हैं।
1 हे वै० ततः प्रागभावादिभेदस्थितिः कुतो न कुतोपि । दि० प्र० । 2 प्राग्नासीदित्यादि । ब्या० प्र०। 3 स्या० वदति हे वै० यथा प्रागभावादिज्ञानविशेषात्तेषां प्रागभावादीनां व्यवस्थायां नत्यां । तत एव सत्तासमवाय ज्ञानविशेषादेवसत्तासमवायभेदव्यवस्था भवतु । दि० प्र०। 4 परीक्षकाणां विचारचतुरचेतसां घटादे: कार्यस्य प्राक्काले वर्तमान काले पश्चात्काले सत्तासमवायोस्ति इत्यादिप्रत्ययविशेषोऽसिद्धो न हि सिद्ध एव सत्तासमवाययोः द्वयोर्यतः कुतोनेकत्वं न स्यात् । अपितु स्यादेव । दि० प्र०। 5 आदिशब्देन पश्चात्कालः । ब्या० प्र०। 6 स्याद्वाद्याह यदि पुन: पूर्वकालादिकालाः सत्ताविशेषणान्येवं भिद्यन्ते समवायिनः पटादयोश्च भिद्यन्ते न पुनः सत्तासमवायश्च भिद्यते । हे वै० इत्येवं तव मतं तदास्मदभ्युपगतो भावोपि न प्रागभावादयोऽभावविशेषणान्येव भिद्यन्ते यतः हे वै. विरुद्धस्वभावादिकरणात्तस्याभावस्य भेदे त्वयाऽभ्युपगते सति तदा विरुद्धधर्मीध्यासादेव सत्तासमवाययोरस्मदभ्युपगतो भेदोप्यस्तु । यत एवं ततः सत्ता नानारूपा यथा सत्ता एवं समवायोपि नानात्मकः यथा समवायः । दि० 7 गुणगुण्यादयः । ब्या० प्र० ।
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