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अष्टसहस्री
[ तृ० ५० कारिका ५६ प्रतीतिभेदमित्थं समर्थयते सकललौकिकजनस्याचार्यः । स हि घटं भक्त्वा मौलिनिर्वर्तने घटमौलिसुवर्णार्थी तन्नाशोत्पादस्थितिषु विषादहषों दासीन्यस्थितिमय जनः प्रतिपद्यते इति, घटार्थिनः शोकस्य 4घटनाशनिबन्धनत्वात्, मौर्थिनः प्रमोदस्य मौल्युत्पादनिमित्तत्वात्, सुवर्णाथिनो माध्यस्थ्यस्य सुवर्णस्थितिहेतुकत्वात्, तद्विषादादीनां निर्हेतुकत्वे तदनुपपत्तेः, पूर्वतद्वासनामात्रनिमित्तत्वेपि तन्निय मासंभवात् । 'तद्वासनायाः प्रबोधकप्रत्ययनियमानियतत्वाद्विषादादिनियम' इति चेत्तर्हि नाशोत्पादान्वया एव वासनाप्रबोधकप्रत्यया
आचार्य श्री समंतभद्रस्वामी सभी लौकिक जनों के लिये "इस प्रकार से प्रतीति भेद का समर्थन करते हैं । क्योंकि ये मनुष्य घट का विनाश करके मौलि-मुकुट को बनाने में घट के इच्छुक, मुकुट के इच्छुक एवं केवल सुवर्ण के इच्छुक ये तीनों क्रमश: घट के नाश, मुकुट के उत्पाद और दोनों की स्थिति रूप सुवर्ण के अस्तित्व में विषाद, हर्ष एवं औदासीन्य अवस्था को प्राप्त होते हैं।
घटार्थी को शोक घट के नाश के निमित्त से होता है। मुकुटार्थी को प्रमोद मुकुट के उत्पाद के निमित्त से होता है तथा सुवर्णार्थी मनुष्य का माध्यस्थ भाव दोनों अवस्थाओं में सुवण को स्थिति के बने रहने के निमित्त से होता है। उन मनुष्यों के विषाद, हर्षादि को निर्हेतुक मानने पर वे विप्यादादि हो ही नहीं सकते हैं।
बौद्ध-हम विषादादिकों के लिये कुछ भी हेतु नहीं मानते हैं किन्तु पूर्व की विषादादि रूप वासना मात्र के निमित्त से ही वे विशादादि होते हैं । ऐसा कहने पर
___जैन-तब तो पूर्व की वासना मात्र को निमित्त मान लेने पर भी उन विषादादिकों के निर्णय का नियम नहीं बन सकेगा।
बौद्ध-उस वासना के प्रबोधक कारणों का नियम होने से विषादादिकों का नियम निश्चित
1 उत्पादादीनाम् । ब्या० प्र०। 2 जनः । दि० प्र० । 3 उत्पादने । दि० प्र.14 घटार्थी पुमान् घटनाशनिमित्तत्वात् शोकं प्राप्नोति । मुकुटार्थी जनो मुकुटोत्पत्तिनिबन्धनत्वात्प्रमोद याति । काञ्चनार्थी लोकः काञ्चनस्थितिनिमित्तत्वात् माध्यस्थं लभते । एवं लौकिकदृष्टान्तेन त्रयात्मकवस्तुस्थापनं कृतमाचार्येण । दि० प्र०। 5 अत्राह सौगतः हे स्याद्वादिन् विषादादिवासनानियतत्वात् वासनाप्रबोधप्रत्ययनियमो जायते । तस्माद्विषादादिनियम इति चेत् । स्याद्वादी वदति तहि नाशोत्पत्तिस्थित एव वासनोत्पादकप्रत्यया भवन्ति । इत्युत्तरोत्तरेण नाशादय एव शोकादीनां बहिरङ्गा हेतवो भवन्ति । तहि अन्तरङ्गा हेतवः के इत्युक्ते आह । मोहनीयस्य शोकरत्यादिप्रकृतिविशेषोदया अन्तरङ्गहेतवो भवन्तीति तेषां मोहनीयविशेषोदयानां वासना इति नाममात्र भिद्येत । अर्थो न भिद्यत । कस्मात् । जैनः भावमोहविशेषाणां वासनास्वभावत्वमभ्युपगम्यते यत एवं ततः लौकिकदृष्टान्तेन त्रयात्मकं वस्तु सिद्धम् । कस्मात् प्रतीतिभेदसिद्धेः दि० प्र०। 6 घटलिङ्गादिज्ञापककारण । वासनाप्रकाशकाः प्रत्ययाः कारणानि । ब्या०प्र० ।
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