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अष्टसहस्री
तु०प० कारिका ६०
नित्य एवं क्षणिक में स्याद्वाद सिद्धि का सारांश
नित्यत्व एवं अनित्यत्व रूप उभयकात्म्य को एकांत से स्वीकार करना शक्य नहीं, क्योंकि ये दोनों निरपेक्ष परस्पर विरुद्ध हैं जैसे-जीवन और मरण । किन्तु यदि दोनों सापेक्ष हैं तो सुघटित हैं। तथैव तत्त्व को अवाच्य कहना भी स्ववचन बाधित है। जैसे “मैं मौनव्रती हूँ" ऐसा बोलने वाला पुरुष । इस प्रकार से तत्त्वोपलब्धवादी के दुराशय को दूर करते हुये पुन: जैनाचार्य अनेकांत का समर्थन करते हैं।
हे भगवन ! आप स्याद्वाद के नायक हैं, आपके यहां सभी वस्तुएँ कथंचित् नित्य हैं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान का विषय हैं एवं एकत्व प्रत्यभिज्ञान भी अविच्छेद रूप से अनुभव में आ रहा है, अतः भ्रांत भी नहीं है । सभी जीवादि वस्तु कथंचित् क्षणिक हैं क्योंकि परिणाम भेद-काल भेद पाया जाता है। सर्वथा नित्य में क्रम से अथवा युगपत् क्रिया संभव नहीं है क्योंकि पूर्व स्वभाव का त्याग करके उत्तर स्वभाव को प्राप्त करना ही अर्थ क्रिया का लक्षण है। सर्वथा क्षणिक में भी अर्थ क्रिया असंभव है । अतः इन दोनों एकांत का अस्तित्व ही संभव नहीं है । सर्वथा नित्य में पूर्वाकार त्याग और उत्तराकारोत्पाद का अभाव है। एवं क्षणिक में अनेक शक्यात्मक अन्वय रूप एक द्रव्य का अभाव है । कथंचित् नित्यानित्य वस्तु में ही पूर्वाकार का त्याग, उत्तराकार का उपादान एवं दोनों अवस्थाओं में एक अन्वय द्रव्य का सद्भाव है।
यदि आप कहें कि एक ही वस्तु में उत्पादादि रूप त्रय का स्वभाव भेद होने से अनेकत्व, विरोध आदि दोष आयेंगे । सो दोष हमारे स्याद्वाद से नहीं आ सकते हैं । आपके यहां भी एक चित्त ज्ञान में ग्राह्य-ग्राहकाकार अनेक हैं, किन्तु ज्ञान एक है। उसमें अनेकत्व, विरोध, संकर आदि दोष नहीं हैं।
हे भगवन् ! आपके अनेकांत शासन में सभी जीवादि वस्तु सामान्य रूप से न उत्पन्न होती हैं, न नष्ट होती हैं क्योंकि "यह वही है" ऐसा अन्वय देखा जाता है। तथा विशेष की अपेक्षा से सभी वस्तु उत्पन्न एवं नष्ट होती हैं अतः युगपत् एक वस्तु में उत्पादादि तीनों पाये जाते हैं क्योंकि "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तसत्" ऐसा वचन है। "सभी वस्तु चलाचलात्मक हैं क्योंकि कृतक और अकृतक रूप हैं।" चल-उत्पाद, व्यय एवं अचल-ध्रौव्य रूप हैं। पूर्वाकार त्याग एवं उत्तराकारोत्पाद पर व्यापार की अपेक्षा रखते हैं अतः कृतक हैं एवं द्रव्य स्थास्नुस्वभाव वाला है, पर अपेक्षा से रहित अकृतक है।
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