________________
अथ चतुर्थः परिच्छेदः।
जीयादष्टसहस्री देवागमसंगतार्थमकलङ्कम् ।
गमयन्ती सन्नयतः प्रसन्नगम्भीरपदपदवी ॥१॥ कार्यकारणनानात्वं गुणगुण्यन्यतापि च ।
सामान्यतद्वदन्यत्वं चैकान्तेन यदीष्यते ॥६१॥ कार्यग्रहणात्कर्मणोवयविनोऽनित्यस्य गुणस्य प्रध्वंसाभावस्य च ग्रहणं, कारणवचनात् समवायिनस्तद्वतः प्रध्वंसनिमित्तस्य च । गुणशब्दान्नित्यगुणप्रतिपत्तिः, गुणिवचनात्तदा
जो भेद-अभेद से रहित है, योगियों के ज्ञानगोचर होकर भी अगोचर है, भेदों से रहित एक होकर भी गुणों की अपेक्षा अनंत है ऐसी शुद्धात्मा को हम नमस्कार करते हैं।
__ इलोकार्थ-अकलंक-निर्दोष, देवागम से संगत-अनुरूप अर्थ को, अथवा श्री समंतभद्र स्वामी द्वारा किये गये देवागम स्त्रोत पर श्री अकलंक देव के द्वारा रचित अष्टशती टीका के अर्थ को सम्यक्नयों के प्रयोग से बतलाती हुई, प्रसन्न एवं गम्भीर पद--वाक्यों से सहित, श्री विद्यानन्द स्वामी द्वारा रचित अष्टसहस्री नामक टीका इस पृथ्वी पर चिरकाल तक जयशील होवे ।।१।।
कार्य और कारण में भेद गुणी से गुण भी भिन्न रहे। उसी तरह सामान्य और सामान्यवान् भी पृथक कहें ।। वैशेषिक मत कहे सर्वथा भिन्न-भिन्न गुण द्रव्य सभी।
पुनः वस्तु से सत्त्व पृथक हैं अत: वस्तु हैं असत् सभी ।।६१।। कारिकार्थ कार्य कारण में सर्वथा भिन्नता है, गुण और गुणी में भी सर्वथा भिन्नता है एवं सामान्य और सामान्यवान् में सर्वथा भिन्नता है। यदि आप एकांत से ऐसा मानते हैं तो इस कारिका की टीका में इनकी एकांत मान्यता देकर अगली कारिका में उसका निराकरण करेंगे ।।६।।
कारिका में "कार्यपद" के ग्रहण करने में चलनादि क्रिया रूप कर्म तन्त्वादि कारणों से होने वाले अवयवी, संयोगादि अनित्य गुण एवं मुद्गरादि कारण से होने वाले प्रध्वंसाभाव का ग्रहण किया
1 गमयन्तीक देवागमसंगतार्थं देवागमाख्यस्य स्तुतेः हृदयंगममर्थं संगतं हृदयंगममिति वचनात् । कि विशिष्टमकलंकम् । कलङ्करहितम् । अथवा कलङ्करहितं यथा भवति तथा गमयन्तीति संबन्धः । दि० प्र०। 2 अवयवाव. यविनोर्भदः । दि० प्र० । 3 सामान्यविशेषयोर्भेदः । दि० प्र०। 4 सर्वथा। दि० प्र०। 5 यदि चेत् । दि० प्र०। 6 गुणाधारस्य । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org - |