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अष्टसहस्री
[ च० ५० कारिका ६४ मात्रेण तु स्थितानामेकत्वपरिणामनिरुत्सुकानां नैकाकाशप्रदेशेवस्थानमवगाहनविशेषाभावादनेकाकाशप्रदेशवृत्तित्वसिद्धः । इति स्याद्वादिनां न किंचिद्विरुद्धम् । स्यान्मतम्,
आश्रयायिभावान्न "स्वातन्त्र्यं समवायिनाम् । इत्ययुक्तः स संबन्धो न युक्तः समवायिभिः ॥६४॥
जैन-हम जैन तो ऐसा कहते हैं कि आकाश प्रदेश में उस प्रकार का अवगाहन गुण विशेष है और वे असंख्यात परमाणु भी एक स्कन्ध रूप से परिणत हो जाते हैं। एक मूर्तिमान, असंख्येय परमाणु रूप स्कन्ध द्रव्य, एकत्र आकाश प्रदेश में रहता है इसमें कुछ भी विरोध नहीं आ सकता है अन्यथा अति प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् जल, लवण, भस्म, सूई आदि अनेक पदार्थ भी क्रमशः एक जगह रह जाते हैं उनका रहना भी विरुद्ध मानना पड़ेगा।
किन्तु संयोग मात्र से स्थित, एकत्व परिणाम से निरुत्सक ऐसे परमाणुओं का एक आकाश प्रदेश पर अवस्थान नहीं है । क्योंकि अवगाहन विशेष का अभाव होने से उनकी अनेक आकाश प्रदेशों में वृत्ति (रहना) सिद्ध है।
इसलिये स्याद्वादियों के यहाँ कुछ भी विरुद्ध नहीं है। अर्थात् किन्हीं स्कन्ध रूप से परिणत परमाणुओं का समान देश में रहना सिद्ध है और पृथक्-पृथक् परमाणुओं का भिन्न देश में ही रहना है यह बात सिद्ध हो गई। यदि आप यौगमतानुयायियों का ऐसा अभिप्राय हो कि
यदि समवायी पदार्थ का है आश्रयी भाव । अतः स्वतन्त्र नहीं हैं जिससे भिन्नों में है वृत्ति अभाव ।। चूंकि स्वयं जो असम्बद्ध वह एक अवयवी वस्तू का ।
अवयव बहुतों से कैसे तद्वत् सम्बन्ध करा सकता ॥६४।। कारिकार्थ-आश्रय और आश्रयी भाव के होने से समवायि-तंतुपटादिकों में स्वतन्त्रताभिन्नता नहीं है यदि आप वैशेषिक ऐसा कहते हैं, तब तो समवादियों के साथ अयुक्त (दूसरे समवाय सम्बन्ध से असम्बन्धित) वह समवाय सम्बन्ध युक्तियुक्त नहीं है अर्थात् समवाय लक्षण सम्बन्ध समवायियों के साथ असम्बन्धित होने से सिद्ध नहीं हो पाता है। ।।६४।।
वैशेषिक-समवाय से कार्य कारणादिकों का परस्पर में सम्बन्ध है। अतः इनमें स्वतन्त्रताभेद कैसे सिद्ध हो सकेगा ? कि जिससे देश कालादि के भेद से उनमें वृत्ति हो सके अर्थात नहीं हो सकती है।
1 रहितानाम् । दि० प्र०। 2 तन्तुपटादीनाम् । दि० प्र०। 3 असम्बद्धः । दि० प्र०। 4 समवायलक्षणमुपपन्न: । दि०प्र०।
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