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अष्टसहस्री
[ च०प० कारिका ६२ प्रत्याश्रयं सर्वात्मना वाऽवयवादिष्ववयव्यादिः ? गत्यन्त राभावादिति । तत्र च निगदितो दोषः। 'तदेवं कार्यगुणसामान्यानां स्वाश्रयेभ्यो विवादापन्नेभ्यो नैकान्तेनान्यत्वं, तत्र' 'वृत्त्युपलब्धेः । यस्य तु यतोन्यत्वकान्तस्तस्य' तत्र न वृत्त्युपलब्धिः। यथा हिमवति विन्ध्यस्य । वृत्त्युपलब्धिश्चावयव्यादेः स्वाश्रयेषु। तस्मान्नकान्तेनान्यत्वम् । इत्यनुमानेन तन्नानात्वपक्षस्य' बाधितत्वात् कालात्ययापदिष्टो भिन्नप्रतिभासत्वादिति हेतुः । नन्विदमनुमानमसम्यक्, स्थाल्यां दध्नानकान्तिकत्वात् 'ततोन्यस्यापि दध्नस्तत्र वृत्त्युपलब्धः ।
जैन- नहीं। उस समवाय में ही तो विवाद है। इसी का ही तो विचार किया जाता है। अवयवादिकों में अवयवी आधार-आधार के प्रति क्या एक देश से समवाय संबंध करता है या सर्व देश से ? गत्यंतर अन्य प्रकार का अभाव है। और इन दोनों पक्षों में ही हमने दोष दिखा दिया है ।
___ इस लिये इस उपयुक्त आपके कथन प्रकार से कार्य, गुण और सामान्य इन तीनों का विवादापन्न अपने आश्रयभूत-अवयवी, गुणी और सामान्यवान् से सर्वथा-एकांत से भिन्नपना नहीं है । क्योंकि वहां पर उन कार्य, गुण और सामान्य का रहना उपलब्ध हो रहा है । जिसका जिससे एकांत से भिन्नत्व है उसकी वहां पर वृत्ति उपलब्ध नहीं होती है। जैसे हिमवन् पर्वत पर विंध्याचल की उपलब्धि नहीं है। और अवयवी, आदिकों का अपने-अपने आश्रयों में रहना देखा जाता है । इसलिये एकांत से भिन्नपना नहीं है । इस केवल व्यतिरेकी अनुमान से उन अवयव-अवयवी आदिकों में परस्पर में भेद का होनारूप भेद पक्ष बाधित हो जाता है अतः "भिन्न प्रतिभासत्वात् पूर्व कारिका में कहा गया यह हेतु कालात्ययापदिष्ट है।
___ योग- यह आपका अनुमान समीचीन नहीं है। थाली में दही से अनैकांत दोष आता है उस थाली से भिन्न भी दही का वहां पर रहना देखा जाता है।
जैन-हे योग ! संयोग रूप वृत्ति अर्थात रभूत दो पदार्थों में ही प्रतीति में आती है । अन्यथाभूत-अभिन्न रूप पदार्थों में संयोग नहीं है।
1 अवयवि । ब्या० प्र० । 2 स्वाश्रयेषु । दि० प्र०। 3 कार्यगुणसामान्यानां । दि० प्र० । 4 भिन्नत्व । ब्या० प्र० । 5 व्यतिरेकव्याप्तिः । दि० प्र० । 6 अवयवादिषु । दि० प्र०। 7 स्याद्वाद्याह । हे वैशेषिक इत्यस्मदनमानेन कार्य: गुणसामान्यत द्वतां भवत्कृतो भिन्नत्वपक्षो बाध्यते यतः। भिन्न प्रतिभासित्वादिति हेतु: कालात्ययापदिष्टः । दि० प्र०। 8 अत्राह वेशेषिक: हेस्याद्वादिन् तत्र वृत्त्युपलब्धेरिदमनुमानं त्वदीय मसत्यम् । कुतः कुण्डे दना व्यभिचारत्वात् । कथमित्युक्त आह । यतः स्थालीतः अन्यस्य सर्वथा भिन्तस्य दध्नः तत्र स्थाल्यां वृतिदृश्यते यतः । वृत्तिः का इत्युक्त आह संयोग एव वृत्तिः । सा च भिन्नयो: स्थाली दध्नोरेव निश्चीयते अन्यथा कथाञ्चित्तादात्म्य योवृत्तिर्न । =स्याद्वादी वदति हे योग इत्युक्तप्रकारेण न ज्ञातव्यम् । त्वया । कुतः संयोगपरिणमनस्वभावयोः संयोगिनो स्थाली दध्नोखि सर्वथा भिन्नत्वं न सिद्धयति यतोऽन्यथा संयोगिनोः सर्वथा भिन्नत्वं सिद्धयति चेत्तदा तस्य संयोगस्याभावः प्रसजति । दि० प्र०। 9 स्थाल्याः । ब्या० प्र० । 10 भिन्नस्यापि । व्या प्र० ।
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