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अष्टसहस्री
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[ च० ५० कारिका ६३ वा शक्यो वक्तुं, यतस्तद्वदवयवावयव्यादीनां कथंचित्तादात्म्यं' वृत्ति: प्रकृतदूषणोपद्रुता' स्यात् । किं चावयवादिभ्योवयव्यादीनामत्यन्तभेदे देशकाला भ्यामपि भेदः स्यात् ।
देशकाल विशेषेपि स्यावृत्ति युतसिद्धवत् । समानदेशता' न स्या मूर्तकारणकार्ययो॥६३।।
कथंचित् तादात्म्य ही स्वीकार कर लिया गया है ऐसा समझना चाहिये। वह सामान्य विशेष का एकार्थ समवाय कथंचित् एक द्रव्य तादात्म्य से भिन्न अन्य कोई समवाय रूप सम्भव नहीं है। क्योंकि सामान्य को ही आपने अनुवृत्त, व्यावृत्त, प्रत्यय हेतु रूप से सामान्य विशेष रूप उभयाकार रूप को स्वीकार कर लिया है। अथवा उन दोनों आकारों का अन्यत्र—किसो तृतीय पदार्थ में परस्पर समवाय कहना शक्य भी नहीं है कि जिससे उसके समान अवयव और अवयवी अ.दिकों में कथंचित् तादात्म्य वृत्ति प्रकृत दूषणों से उपद्रुत हो सके । अर्थात् नहीं हो सकती है । अर्थात् सामान्य आकार में विशेषाकार का होना और विशेषाकार में सामान्याकार' का होना परस्पर में समवाय है। ऐसा परस्पर समवाय उन दोनों का अन्यत्र किसी पदार्थ में भी नहीं है । अतः अवयव, अवयवी आदिकों में कथंचित् तादात्म्य वृत्ति ही है । उसमें आपके दिये हुये दूषण नहीं आते हैं।
___ और दूसरी बात यह है कि अवयव आदिकों से अवयवी आदि को अत्यन्त रूप से भिन्न मानने पर देश और काल के द्वारा भी भेद हो जायेगा।
यदि अवयव अवयवी आदि में भेद सर्वथा कहो सुजान । देश काल से भी होगा यह, भेद पुनः युतसिद्ध समान ॥ पृथक-पृथक आश्रय वाले घट पट में भी वृत्ति होगी।
तब तो मूर्त कार्य कारण में एकदेशता नहिं होगी ।।६३॥ कारिकार्थ-अवयव, अवयवी आदि में परस्पर में अत्यन्त भेद मानने पर देशकाल की अपेक्षा से भी इनमें भेद मानना होगा एवं देश, काल से भी भेद के मानने पर इनकी वृत्ति युतसिद्ध पदार्थों की तरह होगी, पुनः मूर्त कार्यकारण में सामान्य देशता-एक देशपना नहीं बन सकेगा। ।।६३॥
योग-आत्मा और आकाश में अत्यन्त भेद होने पर भी देश और काल से भेद का अभाव है इस लिये कार्यकारण आदिकों में उन देशकालों से वह भेद सिद्ध नहीं होता है जिससे की आप युतसिद्धि के समान वृत्ति मानें, अर्थात् नहीं मान सकते हैं ।
1 सम्बन्धः । ब्या०प्र० । 2 बाधिता । ब्या० प्र० । 3 भा । ब्या० प्र०। 4 विशेषे च । इति पा० । दि० प्र० एवं ब्या० प्र०। 5 अवयव्यादीनां वर्तनम् । अवयवावयव्यादयः देशकालाभ्यां भिन्नात्यन्तभिन्नत्वात् । ब्या० प्र० । 6 एककालता । दि०प्र० । 7 खरकरभयोर्घटवृक्षयो मूर्त्तयोर्यथा समानदेशकालता न स्यात्तथा। दि०प्र०। 8 योगस्यैव सत्त्व द्रव्यादीनां पदार्थान्तरत्वेन तदपेक्षयाभेदाघटनात् । अत्यन्तभेदसद्भावात् देशकालापेक्षयापि भेदप्रसङ्गो भवत्यात्माकाशादीनामिति स्याद्वादिवचनं परिहरन्तं योगं प्रत्याहुः परस्यापीति । दि० प्र० ।
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