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अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ५७ सामान्यस्वभावेन सत एवातिशयान्तरोपलम्भाद् घटवत् 'कथंचिदुत्पादविगमात्मकत्वादित्यादि योज्यम् । नापि विनाश एव, तत एव तद्वत् । न च स्थितिरेव, 'विशेषाकारेणोत्पादविनाशवत एव सदादिसामान्येन स्थित्युपलम्भाद् 'द्रव्यघटवत् । इति हि पृथगुपपत्तियोंज्यते । सदादिसामान्येन सतस्तन्त्वादेर्घटाकारातिशयान्तरोपलम्भप्रसङ्ग इति चेन्न, स्वभावग्रहणात् । सदादिसामान्यं हि यत्स्वभावभूतं घटस्योपादानद्रव्यमसाधारणं तद्भावेन10 परिणमदुपलभ्यते । तेनैव सतोतिशयान्तराधानं घटो यथा प्रतिविशिष्टघटयोग्यमृद्रव्यादिस्वरूपेण, न पुनः साधारणेन तन्त्वादिगतसामान्येन नापि साधारणासाधारणेन पार्थिव
पदार्थ की सर्वथा-पर्यायाकार के समान ही द्रव्यरूप से उत्पत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि सत् आदि सामान्य स्वभाव से सत् में ही अतिशयांतर-पर्यायान्तर की उपलब्धि होती है, जैसे-मिट्टो रूप से सत् रूप घट की उत्पत्ति में घट पर्यायलक्षण अतिशय देखा जाता है। तथैव सदादि सामान्य रूप से सत् ही कथंचिद् उत्पादविनाशात्मक है । इत्यादि लगा लेना चाहिये।
उसी प्रकार से घट के समान विनाश ही नहीं है और न स्थिति ही है। क्योंकि विशेष-पर्यायों के आकार से उत्पाद विनाश वाली वस्तु में ही सदादि सामान्य से स्थिति उपलब्ध है द्रव्य घट के समान।
इस प्रकार से पृथक उत्पत्ति योजित की जाती है। अर्थाद् पहला ही हेतु इन दोनों साध्यों में लगा लेना चाहिये।
शंका-सत् आदि सामान्य रूप से सत् रूप-तन्तु आदि में घटाकार रूप पर्यायांतर की उपलब्धि का प्रसंग आ जायेगा।
समाधान—ऐसा नहीं कहना । क्योंकि हमने स्वभाव को ग्रहण किया है अर्थात् तन्तु आदि में पट स्वभाव ही है न कि घट स्वभाव । सदादि सामान्य जिस स्वभावभूत घट का असाधारण उपादान द्रव्य है । वह उस घट स्वभावभूत मिट्टी आदि सामान्य रूप से परिणत होता हुआ उपलब्ध होता है। उसी सदादि सामान्य से ही सत रूप उपादान मृत्पिड में अतिशयान्तराधान उपलब्ध हो रहा है। जिस प्रकार से घट प्रतिविशिष्ट घट योग्य मिठी द्रव्यादि रूप से घट है। वैसे ही साधारण तन्त आदि गत सामान्य से घट नहीं है और साधारण-असाधारण रूप से पाथिवत्वादि सामान्य रूप से अथवा अविशिष्ट घटोपादान रूप मृदादि सामान्य से पहले सत् में अतिशयान्तरोपलब्धि भी नहीं है कि जिससे तन्तु आदि में भी घट परिणति का प्रसंग आवे। अर्थात् नहीं आ सकता है एवं घट
1 द्रव्यरूपेणोत्पादरहितत्वं । ब्या० प्र० । 2 विनाश । ब्या० प्र०। 3 चेतनस्यान्यस्य वा सर्वथेति पूर्वोक्तमत्रापि संबन्धनीयम् । ब्या०प्र०। 4 घटवत्। दि० प्र०। 5 पर्याय। दि० प्र०। 6 वस्तुत्वाभिधेयत्व । ब्या० प्र० । 7 वस्तुनः । दि० प्र०। 8 सौगतः । दि० प्र० । 9 मद्रव्यम् । ब्या० प्र० । 10 उपादान । दि० प्र० । 11 पिण्ड. स्वरूपम् । ब्या० प्र०। 12 सत्त्व । ब्या० प्र० ।
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