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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
[ २४७
स्वपरिमाणादल्पपरिमाणकारणारब्धत्वविपरीतसाधनात् । ततो नेदमनुमान बाधकं कपालोत्पादस्य घटविनाशस्य चैकहेतुत्वनियमप्रतीतेरेकस्मादेव मृदाधुपादानात्तद्भावस्य' सिद्ध रेकस्माच्च मुद्गरादिसहकारिकलापात्तत्संप्रत्ययात् । इति सिध्यत्येव हेतोनियमात्कार्योत्पाद एव पूर्वाकारविनाशः ।
[ उत्पादविनाशयोः सर्वथा अभेदो नास्ति । ] न चैवं सर्वथोत्पादविनाशयोरभेद एव, लक्षणात्पृथक्त्वसिद्धेः । तथा हि । कार्यकारणयोरुत्पादविनाशौ कथंचिद्धिन्नौ भिन्नलक्षण संबन्धित्वात्सुखदुःखवत् । नात्रा
कपाल के उत्पाद और घट के विनाश में एक हेतुक नियम की प्रतीति हो रही है अर्थात् दोनों में मुद्गरादि का प्रहार रूप निमित्त कारण भी एक ही है एवं मत्पिण्ड रूप उपादान कारण भी एक ही है। क्योंकि एक ही मिट्टी आदि रूप उपादान कारण से घट विनाश और कपालोत्पाद रूप वह दोनों भावों की सिद्धि होती है और एक ही मुद्गरादि सहकारी कारण कलापों से उस उत्पाद विनाश की सिद्धि देखी जाती है। इसलिये एक हेतुक नियम से कार्य का उत्पाद ही पूर्वाकार का विनाश है यह बात सिद्ध ही हो जाती है।
[ उत्पाद और विनाश में सर्वथा अभेद नहीं है। ] यदि आप कहें कि उत्पाद और विनाश में सर्वथा अभेद ही है सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उन नाश और उत्पाद में लक्षण भेद होने से भिन्नपना सिद्ध ही है । तथाहि
कार्य का उत्पाद और कारण का विनाश कथंचित-पर्याय की अपेक्षा से भिन्न ही है। क्योंकि वे भिन्न लक्षण सम्बन्धी हैं, सुख और दुःख के समान। इस अनुमान में हेतु असिद्ध भी नहीं है । क्योंकि कार्य का उत्पाद तो स्वरूप के लाभ लक्षण वाला है और कारण का विनाश तो स्वरूप से प्रच्युति लक्षण वाला है। उन दोनों में भिन्न लक्षण सम्बन्धीपना सिद्ध है। यह हेतु अनेकांतिक अथवा विरुद्ध भी नहीं है।
1 कार्यम् । ब्या० प्र० । 2 आह स्याद्वादी यत एवं तत इदं प्रतिवादिकृतमनुमानं स्याद्वाददर्शनस्य सूत्रकारवचनस्य च बाधकं न भवति । दि० प्र० । 3 एकत एव मत्पिण्डाद्यपादानकारणात्तयोः कपालोत्पादविनाशयोर्भावः सिद्धयति दि० प्र०। 4 एकहेतुत्वप्रकारेण । ब्या० प्र०। 5 कार्योत्पाद.क्षयोहेतोरितिकार्यस्थितपदानां प्रतिपदमिदम् । दि. प्र० । 6 तत्रस्थितपथगितिपदमतिपदमिदम् । दि० प्र०। 7 तत्र स्थितिलक्षणादिभिः पदप्रतिपदमिदम् । दि० प्र० । 8 भा। ब्या०प्र० । 9 बसः (ब्या० प्र०)। 10 अत्रोत्पादविनाशयोः कयञ्चिद्मेदव्यवस्थापकानुमाने भिन्नलक्षणसंबन्धित्वादिति साधनम सिद्धं न कुतः कार्योत्पादोत्तराकारप्रादुर्भावलक्षणोस्ति यतः । तथा कारणविनाशः पूर्वाकारप्रच्यवनलक्षणोस्ति यतः । एवं कार्योत्पादकारण विनाशयोः भिन्न लक्षणसंबन्धित्वं सिद्धयति-तथात्रानुमाने साधनं न व्यभिचारितापि विरुद्धम् । दि० प्र० ।
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