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[ तृ० प० कारिका ५६
दर्शनप्रत्यभिज्ञानसमययोरभेदे तदुभयाभावप्रसङ्गात् दर्शनसमयस्याभेदे 'तन्निर्णयानुपपत्तेः, प्रत्यभिज्ञानसमयस्याभेदे' पूर्वापरपर्यायव्याप्येकद्रव्य प्रत्यवमर्शासंभवात् । ततो दर्शनकालोऽवग्रहेहावायधारणात्मक निर्णय हेतुभिन्न एव, प्रत्यभिज्ञानकालश्च पुनस्तद्दर्शन स्मरण संकलन - 'हेतुरिति' प्रतिपत्तव्यम् । किं च ' पक्षद्वयेपि ज्ञानासंचारानुषङ्गादनेकान्तसिद्धिः । नित्यत्वैकान्तपक्षवत्क्षणिक कान्तपक्षेपि ज्ञानसंचारोस्ति, तस्यानेकान्ते एव प्रतीतेः । केवलम
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सहस्र
सम्बन्ध के न होने से प्रत्यभिज्ञान असंभव है । "इसलिये जीवादि वस्तु कथंचित् क्षणिक हैं, क्योंकि दर्शन और प्रत्यभिज्ञान में कालभेद पाया जाता है ।"
यह हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है । " दर्शन - वर्तमान काल का अनुभव और प्रत्यभिज्ञान इन दोनों के समय में अभेद मान लेने पर तो उन दोनों के अभाव का प्रसंग आ जाता है ।" प्रत्यभिज्ञान के समय से दर्शन के समय में अभेद मानने पर उसका निर्णय नहीं बन सकेगा । प्रत्यभिज्ञान समय में अभेद मानने पर पूर्वोपर पर्यायों में व्यापी एक द्रव्य का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा । इसलिये अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणात्मक निर्णय हेतु दर्शन काल भिन्न ही है । तथा वस्तु का दर्शन और स्मरण रूप संकलन हेतुक प्रत्यभिज्ञान काल भी भिन्न ही है । ऐसा समझना चाहिये ।
दूसरी बात यह है कि सर्वथा क्षणिक पक्ष और नित्य पक्ष इन दोनों ही पक्षों में भी प्रत्यक्षादि ज्ञानों के असंचार का प्रसंग आ जाने से कथंचित् क्षणिक, कथंचित् नित्य रूप अनेकांत की सिद्धि हो जाती है । नित्यत्वकांत पक्ष के समान क्षणिकैकांत पक्ष में भी ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं है क्योंकि वह ज्ञान का व्यापार अनेकांत में ही अनुभव में आता है ।
यदि अनेकांत में ही ज्ञान का संचार है तब तो अनेकांत की प्रत्यक्ष से ही प्रतीति होने से उसकी सिद्धि के लिये "प्रत्यभिज्ञानमानत्वात्" इत्यादि अनुमान निरर्थक ही है, ऐसा प्रश्न होने से कहते हैं कि
केवल अपोद्धार कल्पना से अर्थात् भेद कल्पना से हो कथंचित् जात्यंतर स्वरूप प्रत्यभिज्ञानादि निमित्तक वस्तु में भी स्थिति, उत्पत्ति और व्यय की व्यवस्था की जाती है । परस्पर निरपेक्ष सर्वथा नित्यनित्यात्मक जात्यंतर पक्ष स्वीकार करने पर अपोद्धार कल्पना भेद कल्पना के न हो सकने से स्थिति, उत्पति और विनाश रूप स्वभाव भेद की व्यवस्था अघटित है । जैसे कि सर्वथा अजात्यान्तर में उत्पाददि व्यवस्था असंभव है ।
1 अवग्रहादिरूपदर्शनस्य । ब्या० प्र० । 2 दर्शन समयात् । व्या० प्र० । 3 समयाभेदे उभयाभावप्रसङ्गो यतः । ब्या० प्र० । 4 वसः । व्या० प्र० । 5 प्रत्यभिज्ञानकालः । व्या० प्र० । 6 भिन्नः । ब्या० प्र० । 7 किञ्च विशेषप्ररूपणे सर्वथा नित्ये सर्वथा क्षणिके बुद्धयसञ्चारदोषो लगति यतस्ततोनेकान्तः सिद्धयति यथा नित्यत्वेकान्ते ज्ञानसञ्चारो न ह्यस्ति तथा क्षणिककान्तपक्षेपि कस्मादेकान्त एव ज्ञानसञ्चारस्य प्रत्ययात् । दि० प्र० । 8 ज्ञानसञ्चारस्य । दि० प्र० ।
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