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अष्टसहस्री
[ तृ० ५० कारिका ५३ पत्त्यभिधानभेदो विरुध्यते' संविदि ग्राह्यग्राहकाकारयोरपि तद्विरोधप्रसङ्गात् । ततस्तद्वत्तयोरभेद एव । संज्ञाच्छन्दमतिस्मृत्यादिवत् सत्यपि भेदे समकालभाविनोः कथं सहकारी पुनरन्यतरस्यैव हेतुरहेतुर्वा स्यात्, कार्यरूपादेरिव कारणम् । संज्ञा हि प्रत्यभिज्ञा, छन्द इच्छा । तेनादिशब्दस्योभयत्र संबन्धानिदर्शनद्वयं वादिद्वयापेक्षयोच्यते। संज्ञाछन्दादिवन्मतिस्मत्यादिवच्च क्रमभाविनो शोत्पादयोः सत्यपि भेदे समकालभाविनोस्तयोर्घटकपालाश्रययोरिव सहकारी मुद्गरादिः कथं कपालोत्पादस्यैव हेतुर्न पुनर्घट विनाशस्य, तस्यैव वासौ
प्रतिबन्ध-तदात्म्य सम्बन्ध सिद्ध है । इस प्रकार से ज्ञान और शब्द का भेद विरुद्ध नहीं है, अन्यथा एक ज्ञान में ग्राह्य ग्राहकाकार के भी विरोध का प्रसंग आ जावेगा। इसलिये उस : के समान इन नाश-उत्पाद में अभेद ही है। अर्थात एक ज्ञान मात्र तत्व को मानने वालों को यहाँ भी यह ग्रहण करने योग्य ज्ञेय है। और यह ग्रहण करने वाला ज्ञान है इस प्रकार का ज्ञान पाया जाता है तथा शब्द से भी ज्ञेय-ज्ञायक या ग्राह्य-ग्राहक रूप भेद पाये जाते हैं, वैसे भी नाश और दोनों का ज्ञान भिन्न है तथा शब्द भी भिन्न है, फिर भी इनमें भेद नहीं है, यदि मानोगे तब तो एक ज्ञान में भी भेद मानना पड़ेगा।
___संज्ञा, छंद आदि एवं मति-स्मति आदि की तरह भेद के होने पर भी समकाल भावी उन नाश और उत्पाद में किसी एक कपालोत्पाद का वह सहकारी मुद्गर हेतु हो और घट नाश का अहेतु हो यह बात कैसे बन सकती है। जैसे कि कार्य स्वभाव आदि का कारण।
प्रत्यभिज्ञान को संज्ञा कहते हैं । एवं इच्छा को छंद कहते हैं। इसलिये 'आदि' शब्द का दोनों जगह सम्बन्ध करने से संज्ञा-छंदादि एवं मति-स्मृति आदि रूप से ये दो उदाहरण बौद्ध तथा 'जैन इन दो वादियों की अपेक्षा से कहे गये हैं। संज्ञा छंदादि के समान और मति-स्मति के समान क्रम भावी नाशोत्पाद में भेद के होने पर भी समकालभावी उन घट कपालाश्रय के समान नाशोत्पाद में वे सहकारी मुद्गरादि कपाल के उत्पाद में हो हेतु हों, किन्तु घट विनाश में हेतु न हों, अथवा उस घट विनाश के ही हेतु हों, किन्तु कपालोत्पाद के न होवें, ऐसा कैसे हो सकता है ! जैसे कि एक सामग्री के आधीन कार्यरूप रसादि स्तबक के कारण रूपरसादि स्तबक होते हैं। अर्थात् एक बिजोरे में रूपरस आदि कार्यरूप हैं उनके कारण रूप रस आदि हैं वे कारण एकरूप के लिये कारण हों रस के लिये न हों ऐसा नहीं हो सकता है ।
1 स्वाश्रयाभ्याम् । दि० प्र०। 2 यथा सौगताभ्युपगतयोः संज्ञाछन्दसोः क्रमभावित्वादिः । तथानाशोत्पादयोः भेदे सत्यपि समकालभावित्वात्तयोः सहकारीमुद्गरादिउत्पादस्य हेतुः विनाशस्याहेतुश्च कथं स्यात् न कथमपि । यथा कारणरूपादिकं कार्यरूपादेर्हेतुः रसादेरहेतु इति कथं स्यान्न कथमपि । दि० प्र० । 3 संज्ञाछन्दाद्योर्मतिस्मृत्याद्यो: क्रमभाविनोः यथाभेदो विद्यते तथा क्रमभाविनोर्नाशोत्पादयो दे सत्यपि । दि० प्र० 1 4 मुद्गरादिः । मुद्गरात् कपालोत्पत्तिः । ननु विनाशस्तस्या हेतूकत्वादाशंका । ब्या० प्र०। 5 जनमतापेक्षया । ब्या० प्र०।
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