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अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ५६ विरुद्धत्वात् । तथा हि । यत्सत् तत्सर्वं कथंचिन्नित्यं, सर्वथा क्षणिके क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात्सत्त्वानुपपत्तेरिति । अत्र न तावद्धेतोरनैकान्तिकत्वं, सर्वथा नित्यत्वे सत्त्वस्याभावात् सर्वथा क्षणिकत्ववत् । तदभावश्च क्रमाक्रमानुपपत्तेः । तदनुपपत्तिश्च पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानान्वित रूपाभावात् 'सकृदनेकशक्त्यात्मकत्वा भावाच्च । न हि कूटस्थेर्थे पूर्वोत्तरस्वभावत्यागोपादाने स्तः, क्षणिके वान्वितं रूपमस्ति, यतः क्रमः कालकृतो देशकृतो वा स्यात् । नापि युगपदनेकस्वभावत्वं', यतो यौगपद्यं, कौटस्थ्यविरोधान्निरन्वयक्षणिकत्व
जाने पर जीवादि पदार्थों में एकत्व ही असंभव है। कारण वे जीवादि पदार्थ सादृश्य प्रत्यभिज्ञान के विषय हैं। इसलिए उन जीवादिकों में एकत्व प्रत्यभिज्ञान भ्रांत रूप ही सिद्ध है । क्योंकि इसमें विसंवाद का अभाव नहीं है अर्थात् एकत्व प्रत्यभिज्ञान में विसंवाद पाया जाता है । अत: वह भ्रांत ही है।
जैन-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि आपका यह अनुमान विरुद्ध है। तथाहि ! "जो सत् है वह कथंचित् नित्य है क्योंकि सर्वथा क्षणिक में क्रम से अथवा युगपत् अर्थ क्रिया का विरोध है। अतः सत्त्व की अनुपपत्ति है।" अर्थात् क्षणिक का सत्त्व नहीं बन सकता है। इसका पूरा अनुमान-"सभी वस्तुयें कथंचित् नित्य हैं क्योंकि वे सत् रूप हैं । जो सत् रूप हैं वे कथचित् नित्य हैं।" और सर्वथा क्षणिक में किसी भी प्रकार से अर्थ क्रिया असंभव है । अतः क्षणिक के साथ सत्त्व की व्याप्ति असंभव है। यहां पर हमारा हेतु अनैकांतिक भी नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार से सर्वथा क्षणिक में सत्त्व का अभाव है उसी प्रकार से सर्वथा नित्य में भी सत्त्व का अभाव है और वह सत्त्व का आभाव क्रम और युगपत् के नहीं बन सकने से है। अर्थात् सर्वथा नित्य पक्ष में कम-युगपत् के न होने से सत्त्व असंभव है और सर्वथा क्षणिक पक्ष में भी क्रम-युगपत् के न हो सकने से सत्त्व का असंभव है।
उस सत्त्व की अनुपपत्ति (न हो सकना) भी पूर्व स्वभाव का त्याग, अपर स्वभाव का उपादान एवं दोनों अवस्थाओं में अन्वय के अभाव से एवं एक साथ अनेक शक्त्यात्मक के अभाव
1 अनेकक्रमानुपपत्तिदर्शिता। दि० प्र०। 2 नित्यक्षणिकतत्वानाम् । दि० प्र० । 3 अनेन क्रमानुपपत्तिः दशिता। दि० प्र०। 4 स्याद्वादी वदति कटस्थे सर्वकालव्यापिनि नित्येव वस्तुनि पूर्वस्वभावत्याग उत्तरस्वभावोपादानञ्च न भवतः । तथा सर्वथा क्षणिकान्वितं रूपं नास्ति नित्यक्षणिकयो कालकृतो देशकृतो वा क्रमो यतः कुतः स्यान्न कुतोपि तहिक्रमो मा भवतु अक्रमो स्थित्युक्ते नित्यक्षणिकयो:युगपदनेक स्वभावत्वमपि न । अनेकस्वभावत्वाभावे योगपद्यं कुतोभवति चेत्तदाकोटस्थ्यं विरुद्धयते तथा निरन्वयक्षणिकत्वञ्च व्याहन्यते । दि० प्र०। 5 नस्त इति भावः । ब्या०प्र०। 6 अत्राह परः सहकारिकारणमपेक्ष्य नित्ये क्षणिके च क्रमाक्रमाभ्यां कार्यकारणं घटते इत्युक्ते स्याद्वादी वदति । इयं कल्पनापि श्रेयस्करी न कुतः स्वयं स्वस्य नित्यस्य क्षणिकस्य च सहकारिक्रमापेक्षाक्रमाक्रमस्वभावत्वाभावे तदनुत्पत्तेः । तस्याक्रमयोगपद्यकल्पनायाः असम्भवात् । दि०प्र० । 7 नित्यस्य क्षणिकस्य च । ब्या० प्र०। 8 अन्वयशब्देनात्र क्रम भाव्यनेकस्वभावच्याप्येकत्वं युगपद् भाव्यने कस्वभावव्याप्येकत्वञ्च ग्राह्यम् । दि० प्र० ।
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