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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
प्रत्यक्षतः प्रसिद्धेः कथंचिदक्षणिकत्वविरोधः ', पर्यायाकारतयार्थस्येदानीन्तनतयानुभवविच्छेदेपि द्रव्यतया 'तदविच्छेदात् 'तद्विच्छेदे द्रव्यत्वविरोधात् ! शच्वदविच्छिन्नेदानीन्तनत्वस्य ' द्रव्यत्वादनित्यत्वैकान्तस्याव्यवस्थितेनित्यत्वकान्तवत् । तदेकान्तद्वयेपि परामर्शप्रत्ययानुपपत्तेरनेकान्तः स्यान्नित्यमेव सर्वं स्यादनित्यमेवेति सिद्धः ।
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[ २२७
[ स्थित्यभावे प्रत्यभिज्ञानं न सभवति । ]
स्थित्यभावे हि प्रमातुरन्येन दृष्टं नापर: प्रत्यभिज्ञातुमर्हति । पूर्वोत्तरप्रमातृक्षरणयोः कार्यकारणभावलक्षणे संबन्धविशेषेपि पित्रेव दृष्टं पुत्रो न प्रत्यभिज्ञातुमर्हति । तयोरुपा
और यदि द्रव्य से भी अनुभव का विच्छेद मान लेवोगे तब तो द्रव्य का ही विरोध हो जायेगा । क्योंकि शाश्वत (हमेशा) अविच्छिन्न रूप इदानींतन प्रत्यय ही द्रव्य है इसलिये नित्यत्वैकांत के समय अनित्यत्वकांत की व्यवस्था भी नहीं बनती है ।
इसीलिये दोनों प्रकार के एकांत की मान्यता में भी परामर्श-प्रत्यय संकलन रूप प्रत्यभिज्ञान के न हो सकने से अनेकांत की सिद्धि हो जाती है ।
कथंचित् सभी जीवादि वस्तु नित्य हैं तथा कथंचित् अनित्य हैं । इस प्रकार से अनेकांत सिद्ध हो जाता है ।
[ स्थिति को न मानने पर प्रत्यभिज्ञान संभव नहीं है । ]
"एवं प्रमाता की स्थिति के अभाव में अन्य क्षण के द्वारा जाने गये को अन्य क्षण प्रत्यभिज्ञान करने के लिये समर्थ नहीं है ।"
माता के पूर्व क्षण और उत्तर क्षण में कार्यकरण लक्षण सम्बन्ध विशेष के होने पर भी जैसे पिता के द्वारा देखे गये जाने गये का पुत्र प्रत्यभिज्ञान नहीं कर सकता है ।
उन कार्यकारण भावों में उपादान - उपादेय लक्षण कोई एक अतिशय विशेष होता हुआ भी पृथकत्व का ( भेद का) निराकरण नहीं करता है ।
एवं पृथक्त्व के मानने पर पूर्वापर क्षण में प्रत्यवमर्श - संकलन रूप ज्ञान नहीं हो सकता है । क्योंकि पूर्वापर क्षण में जो पृथक्त्व है वही अन्यत्र पिता-पुत्र में भी प्रत्यवमर्श के अभाव में कारण है । सर्वत्र पिता, पुत्र एवं प्रमाता के पूर्वोत्तर क्षण में वह पृथकता समान ही है ।
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1 अभावस्थासः । दि० प्र० । 2 कोशप्रवर्तन काले स्थासस्यानुभावाभावे । दि० प्र० । 3 द्रव्यतयानुभवच्छेदम् । दि० प्र० । 4 अनुभव । दि० प्र० । 5 कुतः । दि० प्र० । 6 ततश्च । ब्या० प्र० । 7 भाष्यानुसारितया प्रकारान्तरेण व्याख्यान्ति स्यान्नित्यमेवेति । दि० प्र० ।
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