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अष्टसहस्री
[ तृ० १० कारिका ५३ चित्करता', सतः करणायोगात् । सर्वथाप्यसतो भावादभिन्नस्योत्पादस्य करणेपि न किंचित् कृतं स्यात् खपुष्पसौरभवत्। सतोऽसतो वार्थान्तरस्य' जन्मनः करणे तु न 'सदसद्वा कृतं स्यात् । एतेन 'प्रागसतोनान्तरस्यार्थान्तरस्य' चोत्पादस्य हेतुना करणे तस्याकिंचित्करत्वमुपदशितं प्रतिपत्तव्यं, प्रागसतोनन्यस्य सत्त्वायोगात्, ततोन्यस्य सत एव करणे वैफल्यात् । ततो यदि न विनाशार्थों हेतुसमागमस्तदोत्पादार्थोपि मा भूत्, सर्वथा विशेषाभावात् ।
कि12 113 क्षणिकैकान्तवादिनां परमाणवः क्षणा उत्पद्यन्ते14 स्कन्धसन्ततयो वा ? प्रथम
करने से वह हेतु अकिंचित्कर-निष्फल ही रहा और यदि घट के विनाश को घट से भिन्न करता है तब तो उस घड़े की उपलब्धि ही बनी रहेगी।
उसी प्रकार से यदि उत्पाद हेतु पदार्थ से अभिन्न उत्पाद को करता है तब तो वह हेतु अकिंचित्कर ही है । क्योंकि सत्-विद्यमान को करने का अभाव है और यदि सर्वथा भी असत्-अविधान रूप घट लक्षण पदार्थ से अभिन्न उत्पाद करता है तो भी उसने आकाश कमल की सुगन्धि के समान कुछ भी नहीं किया है ऐसा समझना चाहिये । अथवा सत् असत् रूप अर्थान्तर का उत्पाद करने में सत् अथवा असत् नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार से नाश और उत्पाद को अपने आश्रय से भिन्न या अभिन्न रूप करना मानने में दूषणों को प्रतिपादित कर दिया है।
इसी कथन से प्राग् असत् रूप कपाल से अभिन्न अथवा भिन्न उत्पाद को मुद्गरादि हेतु के द्वारा करने पर उसको अकिंचित्कर ही समझना चाहिये यहाँ ऐसा दिखाया गया है। क्योंकि प्रागसत्रूप कार्य से अभिन्न उत्पाद का सत्त्व ही नहीं है। और उस कार्य से भिन्न रूप उत्पाद को करना मानने पर तो सत् को ही करने में वह उत्पाद हेतु विफल हो जाता है। इसलिये यदि हेतु समागम विनाश के लिये नहीं है, तब तो वह हेतु समागम उत्पाद के लिये भी मत होवे क्योंकि दोनों में सर्वथा का अभाव है।
1 मुद्गरस्य । ब्या०प्र० । 2 उत्पादकारणात् पूर्व सतः । ब्या०प्र०। 3 मुद्गरादिना । ब्या० प्र० । 4 भिन्नस्य । ब्या० प्र० । 5 कारणेन । ब्या० प्र०। 6 भित्रत्वात्संबन्धाभावात् । ब्या० प्र०। 7 उत्पत्तेः । ब्या० प्र० । 8 प्रागसतोनांतरस्य चोत्पादस्य । इति पा० । दि० प्र० । 9 कार्यात् । दि० प्र० । 10 असत: करणायोगात् । दि० प्र० । 11 मुद्गरादि । ब्या० प्र० । 12 परमाणवः क्षणात्पद्यन्त इति प्रथमपक्षे यथास्थापनायस्थापकपुरुषत्वं विनाश्यविनाशकत्वं तथा कारणकार्यत्वं विरुद्धयत उत्पत्तिः सहेतुका निर्हेतुका वा कुत: न कुतोपि यथा सौगतानां स्थितिविनाशो सहेतुक हेतुको च न भवतः= द्वितीयपक्षे स्कन्धसन्तयः पक्ष: असंस्कृता अनुत्पन्ना भवन्तीति साध्यो धर्मः संवृतित्वात् कल्पनारूपत्वात् यत्पुनरसंस्कृतं न । तत्परमार्थं सत् । यथास्वलक्षणं तेषां स्कन्धानां स्थित्युत्पतिव्यया न भवेयुः यथा खरविषाणस्य । दि० प्र०। 13 दूषणान्तरेणापि पृच्छति जैनो बोद्धम् । दि० प्र० । 14 क्षणादुत्पद्यन्ते । इति पा० दि० प्र० । कारणात् । दि० प्र०।
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