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अष्टसहस्री
.[ तृ० १० कारिका ५४ 'साध्याभावासंभूष्णुताविरहाद्धेतोरन्यथानुपपत्तिरनिश्चितेति' न मन्तव्यं, साध्याभावेतदभावप्रसिद्धेः सौगतस्य । तथा हि ।
[ बौद्धाभिमतपंचस्कंधाः अवास्तविका एव । ] रूपवेदनाविज्ञानसंज्ञासंस्कारस्कंधसंततयोऽसंस्कृताः संवृतित्वात्, यत्पुनः संस्कृतं तत्परमार्थसत्, यथा स्वलक्षणं, न तथा स्कन्धसंततयः, इति साध्यव्यावृत्ती हेतोावृत्तिनिश्चयात् । 'खरविषाणादौ सांवृतत्वस्यासंस्कृतत्वेन व्याप्तस्य प्रतिपत्तेः सिद्धान्यथानुपपत्तिः ।
___ कारिकार्थ-स्कंधों की परम्परा असंस्कृत ही है। क्योंकि वह संवृत्ति रूप है, इसलिये खर विषाण के समान इन स्कंधों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी नहीं हो सकता है ।५४।
साध्याभाव के अभाव का विरह अर्थात् साध्य के अभाव का सद्भाव होने से "संवृतित्वात्" इस हेतु की अन्यथानुपपत्ति निश्चित है ऐसा आप बौद्धों को नहीं मानना चाहिये । क्योंकि भाप बौद्धों के यहाँ साध्य के अभाव में उस हेतु का अभाव प्रसिद्ध है । तथाहि
[ बौद्धाभिमत पांच स्कंध अवास्तविक हैं ] "रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा संस्कार ये पांच स्कंध संततियां असंस्कृत है, क्योंकि ये संवृत्ति रूप हैं। जो पुनः संस्कृत है वह परमार्थ सत् है, जैसे-स्वलक्षण किन्तु स्कन्ध संततियां वैसी नहीं हैं।
इस प्रकार से साध्य-असंस्कृत की व्यावृत्ति हो जाने पर हेतु को व्यावृत्ति भी निश्चित ही है। खर विषाणादि में असंस्कृत रूप से संवृत्ति की व्याप्ति सिद्ध होने से अन्यथा उपपत्ति सिद्ध ही है।
भावार्थ-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श परमाणु सजातीय और विजातीय से व्यावृत हैं और परस्पर में असम्बद्ध हैं वे रूप स्कन्ध कहलाते हैं। सुख-दुःखादि वेदना स्कन्ध कहलाते हैं। सविकल्प और निर्विकल्प ज्ञान के भेद विज्ञान स्कन्ध कहलाते है । वृक्षादि नामक शब्द संज्ञा स्कन्ध कहलाते हैं । ज्ञान, पुण्य, पाप और वासना ये संस्कार स्कन्ध कहलाते हैं। ये परमार्थ सत् नहीं है। अत: इनमें उत्पत्ति, विनाश और स्थिति सम्भव नहीं है।
1 असंभवित्व । ब्या०प्र०। 2 साधनस्य । ब्या० प्र० । 3 अकृतकत्वाभावे। ब्या० प्र०। 4 अकृतकाः । ब्या. प्र०। 5 कार्यरूपम् । ब्या० प्र०। 6 खरविषाणं पारमाथिकं न भवति यतः । ब्या० प्र०। 7 अकार्यरूपत्वेन । ब्या० प्र०। अयमसंस्कृतत्वादिति हेतोरन्यथानुपपत्तिर्न सिद्धयति स्याद्वादिनां । इत्युक्ते स्याद्वादी वदति असंस्कृतत्वादिति साधनस्यान्यथानुपपत्तिसिद्धिर्ज्ञातव्या । कस्मात्स्थित्युत्पत्तिसहितस्य परमाणुरूपस्य स्वलक्षणस्यार्थस्य संस्कृतवं सौगतैरभ्युपगम्यते यतः पुनः कस्माद्धेतोः व्यभिचारो न यथा सौगतानां तथा स्यावादिनामपि स्थित्युत्पत्ति. विपत्तिसहितस्य वस्तुनः कथञ्चित्संस्कृतत्वं सिद्धयति यतः । दि० प्र० ।
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