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विसदृश कार्योत्पादहेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
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हिंसकत्वयोरष्टा ङ्गहेतुकत्व निर्वारणवचनयोश्चान्योन्यं विप्रतिषेधात् सुगतस्य सर्वज्ञत्वेतरवत् ।
"विरूपकार्यारम्भाय यदि हेतुसमागमः । आश्रयिभ्यामनन्यो सावविशेषादयुक्तवत् ॥ ५३॥
विसदृशरूपं विरूपं कार्यम् । तदारम्भाय हिंसा हेतोर्बधकस्य मोक्षहेतोश्चाष्टाङ्गस्य' सम्यक्त्वादेः समागमो व्यापारो यदि ताथागतैरिष्यते तदासौ हेतुसमागम एवाश्रयो नाशोत्पादयोः कारणत्वात् । स चाश्रयिभ्यां कार्यरूपाभ्यां नाशोत्पादाभ्यामनन्य' एव, न पुनभिन्नः,
अहेतुक विनाश और हिंसकत्व की स्वीकृति एवं अष्टांग हेतुकत्व और निर्वाण वचन "इन दोनों में परस्पर विरोध है" जैसे कि सुगत को सर्वज्ञ और असर्वज्ञ दोनों रूप कहना परस्पर में विरुद्ध है ।
अर्थात् आप बौद्धों ने विनाश को अहेतुक कहा है फिर कोई किसी के मारने में हेतु न होने से हिंसक नहीं हो सकता है तथा आपने निर्वाण को भी अभाव रूप यानि चित्तसंतति के नाश रूप माना है पुनः उसे अष्टांग हेतुक कह दिया है आपकी यह बात प्रत्यक्ष में परस्पर विरुद्ध ही है ।
उत्थानिका:- बौद्ध हेतु को विसदृश कार्य का उत्पादक कहते हैं उसका खण्डन
कार्य विसदृश करने हेतु, हेतु समागम यदि कहो ।
तब वह हेतु नाश और उत्पाद उभय में निमित अहो ॥
आश्रयभूत अतः हेतू इन दोनों से अभिन्न रहता ।
इक ही मुद्गर घट का नाश, कपाल उत्पाद उभय करता ॥ ५३ ॥
कारिकार्थ :- यदि आप विसदृश कार्य को आरम्भ करने के लिये हेतु का समागम स्वीकार
करते हैं । तब तो यह हेतु का व्यापार अपने आश्रयी-नाश और उत्पाद से अभिन्न ही है क्योंकि उन दोनों में परस्पर में कोई भेद नहीं है । जैसे अयुक्त अपृथक् सिद्ध पदार्थों का कारण अपने आश्रयियों से भिन्न नहीं होता है ||५३ ||
विसदृश रूप कार्य को विरूप कार्य कहते हैं क्योंकि बौद्ध के मत में अन्वय का अभाव होने से सदृश कार्य नहीं माना है । अत: उस विसदृश कार्य को प्रारम्भ करने के लिये बधक - हिंसक का समागम में हेतु है, और सम्यक्त्वादि अष्टांग का समागम रूप व्यापार मोक्ष का हेतु है यदि इस
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1 तयोः अन्योन्यं विप्रतिषेधादिभाष्यः । दि० प्र० । 2 निर्हेतुकविनाशरूपनिर्वाणः । व्या० प्र० 1 3 यथा विरोधः, पुनः सोगतानां दूषणमुद्भावयन्तः प्राहुः सूरयः । व्या० प्र० । 4 विसदृशरूपे निराश्रवचितोत्यादि । दि० प्र० । 5 मोक्षहेतोश्चार्थादागम । इति पा० । दि० प्र० ।
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